शनिवार, मई 15, 2010

मीडिल क्लास को सब कुछ चाहिए.....!

निरुपमा पाठक, एक ऐसा नाम जिसे समाज की दकियानूसी सोच ने, पढ़ेलिखे परिवार ने एक ही झटके में इतिहास बना दिया. ऐसा नहीं है कि अपनी मर्जी से, अपनी पंसद से शादी करने और अपना जीवन साथी चुनने की वजह से किसी लड़की के मारे जाने की यह  अकेली घटना है. हर कुछ दिन के अंतराल पर ऐसी खबरें आती ही रहती हैं. 

कभी उत्तर प्रदेश के किसी राज्य से तो कभी हरियाणा के किसी गांव से. हर दो तीन दिन बाद के अखबार इस बात की गवाही देते हैं कि कैसे अपने ही गोत्र में शादी करने की कोशिश करते एक प्रेमी युगल को मौत के घाट उतार दिया गया. कैसे किसी बाप, चाचा, भाई और मामा ने अपनी ही बच्ची को जिन्दा छत से फेंक दिया.

लेकिन अब तक इस तरह की ज्यादतर घटनाएं हरियाणा, राजस्थान और उत्तर प्रदेश के उन इलाकों से आती थी जिसे हम शैक्षिक रुप से पिछड़ा हुआ मानते थे या फिर ऐसा सोच कर अब तक इस तरह की टनाओं से अपने-आप को अलग करते आएं हैं.

लेकिन निरुपमा की हत्या ने हमारे पढ़ेलिखे कहे जाने वाले मीडिल क्लास की असलियत बाहर ला दी है.

इस घटना ने यह साबित कर दिया है कि किस तरह से यह समाज विकास करना चाहता है. अपना रुतबा बढ़ाना चाहता है. चुंकी एक मां-बाप का रुतबा तब ज्यादा बढ़ता है जब उसके बच्चे अच्छी नौकरी में आ जाते हैं और खूब सारा पैसा कमाते हैं सो आज इस क्लास में अपने होनहारों को खूब पढ़ाने की हो लगी रहती है. 

जिस इलाके से निरुपमा ताल्लुक रखती थीं वहां और उसके आसपास के इलाकों के मां-बाप अक्सर अपना सब कुछ बेच कर भी बच्चों को पढ़ाने की बात करते दिखते हैं. ऐसा इसलिए कि अगर बच्चा पढ़ लिख कर आफिसर बन गया तो इज्जत बढ़ जाएगी और अगर विदेश चला गया तो खूब सारा पैसा और इज्जत अपने आप आ जाएगा. इन दोनों ही हालत में मां-बाप की इज्जत और झूठी शान बढ़ जाती है. अपने आसपास में इनका कद बढ़ जाता है.

आज से करीब दो साल पहले जब निरुपमा ने कोडरमा से दिल्ली आकर पत्रकारिता में करियर बनाने की बात की होगी तो ऐसा ही कुछ हुआ होगा निरुपमा के परिवार के साथ. तब उसके मां, पिता, दोनों भाई, चाचा और मामा का सर गर्व से उठ गया होगा. सबके सब बहुत खुश हुए होंगे.

 लेकिन जैसे ही निरुपमा ने अपनी जिन्दगी अपने हिसाब से जीने की बात की होगी, अपनी जात-बिरादरी से बाहर जा कर अपने लिए जीवन साथी तलाशने की बात की होगी वैसे ही सब कुछ खत्म हो गया होगा. यहां से हमारा मिडिल क्लास बदल जाता है. 

यहीं से इस क्लास की झूठी शान, पुरानी सोच और दकियानूसी ख्यालों में लिपटा लिबास सामने आ जाता है. हर हाल में अपनी नाक को बचाने के लिए यह समाज हरकत में आ जाता है. सब केवल अपनी इज्जत बचाने के लिए ऐक्ट करने लगते हैं और इस चक्कर में ही देश के संविधान को बौना बता कर सनातन धर्म को सबसे ऊपर बिठा देते हैं. ऐसा ही निरुपमा के पिता ने भी किया.
 
हालांकि इस केस में पुलिस जांच चल रही है और मामला साफ होने में समय लग सकता है. लेकिन उसी समाज से ताल्लुक रखने की वजह से मैं इतना तो दावे के साथ कह सकता हूं कि अगर निरुपमा के परिवार वालों ने उसे मार भी दिया होगा तो भी इस बात की उम्मीद कम ही है कि परिवार के इन लोगों को कोई बड़ी सजा मिले.

इस तरह के मामलों में सब कुछ बड़ी आसानी से मैंनेज होते हुए देखा है मैंने. कुछ पुलिस वाले, डाक्टर और निचली अदालत के जज पैसों से खरीद लिए जाते हैं और कुछ को जाति की इज्जत और भाईचारे के नाम पर लोग अपने साथ कर लेते हैं.

 इसका एक उदाहरण आ भी चुका है. जिस डाक्टर ने निरुपमा की लाश का पोस्टमार्टम किया और टीवी पर एक इंटरव्यू देते हुए यह कहा कि यह मामला साफ-साफ हत्या का लगता है वही डाक्टर दो दिन बाद कहता है कि उसने जल्दबाजी में रिपोर्ट दे दी और गलती हो गई. यह एक मामूली भूल नहीं है बल्कि यह सब कुछ मैनेज होने का उदाहरण है.

 यह इस बात का भी सबूत है कि मिडिल क्लास अपनी झूठी शान के नाम पर कैसे अपने ही बच्चों को मार सकता है और फिर बाद में कानून को ठेंगा दिखाते हुए बच के निकल सकता है.
मुझे इसमें कोई खास हैरानी नहीं होगी अगर निरुपमा पाठक की हत्या की यह गुत्थी उलझते-उलझते जल्द ही एक इतिहास बन जाए.