गुरुवार, फ़रवरी 21, 2013

कुंभ में पुलिस अलग नजर आती है

इलाहाबाद में संगम के किनारे 'कुंभ' सजा है. बांस-बल्लियों के सहारे बहसा एक पूरा शहर. एक बस्ती. एक अलग समाज...! एक महीने के लिए बसे इस समाज को भी सुरक्षा भी चाहिए ही. सुरक्षा के लिए उत्तर प्रदेश पुलिस, उतराखांड पुलिस से लेकर रैपी डेक्शन फोर्स के करीब-करीब लाखों जवान दिन रात, चैबिसों घंटे खड़े रहते हैं. बल्लियों के सहारे ही  थाने बने हैं.पुलिस वालों के आसियाने खड़े हैं.

इस सब के अलावा जो एक बात चैंकाती है वो है...मेला पुलिस का नजरिया. बात करने का ढंग और आम लोगों से उनकी सहजता. एक पल को तो विश्वास ही नहीं होता कि ये पुलिस हमारे देश की है! असल में जितनी सहजता से मेला पुलिस के जवानों को श्रद्धालुओं से बातचीत करते देखा वैसे मैंने आजतक नहीं देखा था. मैं दूसरे शाही स्नान से एक दिन पहले की शाम को संगम किनारे था. श्रद्धालुओं की भीड़ लगातार गंगा में डुबकी लगा रही थी. सांझ का समय हो रहा था. सूरज अस्त हो रहा था. लाईंटे जल गईं थीं.

पुलिस को माईक से यह निर्देश मिल रहा था कि शाम हो जाने की वजह से अब श्रद्धालुओं को गंगा में स्नान करने से रोकें. इसके बाद मैंने जो देखा उसपर सहज विश्वास करना मुश्किल था. मेरी बगल में एक परिवार नहाने के लिए कपड़े उतार रहा था. एसपी रैंक का एक पुलिस जवान परिवार के पास आता है. हांथ जोड़कर कहता है-माता जी...शाम हो गया है. अभी गंगा में नहाने न जाइए. कल सुबह नहा लीजिएगा.

इतनी विनम्रता से पुलिस के किसी आफिस्र को...आम लोगों से बात करते हुए मैंने अपने अबतक के उमर में तो नहीं ही देखा था. मुझे एक सुखद आश्चर्य हुआ. मैंने उस पुलिस वाले के चेहरे को और उनके कंधे पर लगे बैच को गौर से देखा....यह आफिसर उपी पुलिस का ही था. संगम से लौटते हुए मैंने देखा कि चितकबरा वर्दी पहने जवान एक बुढ़ी महिला को हांथ पकड़ा के सड़क के किनारे ले जा रहा था. बगैर झलाए...बिना चिल्लाए.

मौनी अमावस्या वाले दिन करीब-करीब तीन करोड़ लोग...संगम परिसर में पहुंचे थे. इतनी संख्या को हैंडल करना...उन्हें बगैर डराए...प्रेम से...सम्मान से...मेला पुलिस की कर सकती थी.
यही कारण है कि जब इतनी बड़ी संख्या का एक छोटा सा हिस्सा, शाम के समय. इलाहाबाद स्टेशन पर पहुंचती है तो एक भगदड़ मच जाती है और  36 लोगों की जान चली जाती है.