रविवार, नवंबर 11, 2012

'हिंदी का सबसे बड़ा आलोचक सबसे बड़ा जोकर बन चुका है.'


अनिल यादव की किताब
अनिल यादव पेशे से पत्रकार हैं और प्रवृत्ति से घुमक्कड़ लेखक. उनकी हालिया प्रकाशित किताब ‘वह भी कोई देस है महाराज’ पूर्वोत्तर पर केंद्रित एक यात्रा वृत्तांत है. इसमें देश के ऐसे भूभाग की बातें और समस्याएं हैं जो हिंदी पट्टी और देश के दूसरे हिस्सों के लिए अब भी अबूझ पहेली की तरह हैं. किताब के जरिए अनिल अपने साथ पाठकों को भी सुदूर पूर्वोत्तर की सैर कराते हैं. किताब के बारे में उनसे एक बातचीत.

आम तौर पर कहा जाता है कि भारत सरकार और पूर्वोत्तर के बीच संवादहीनता है. क्या संवादहीनता केवल सरकारी स्तर पर है? क्या साहित्य और पत्रकारिता के स्तर पर कोई संवादहीनता नहीं है? 
पूर्वोत्तर से जो भी संवाद है वह सरकारी ही है या फिर व्यापारियों ने बना रखा है. अगर वहां सरकार की भेजी फौजें, किसिम-किसिम के दफ्तर, आयोग और हजारों कर्मचारी न होते तो यह अलगाव और भी गहरा होता. लेकिन यह सिलसिला बहुत फूहड़ है क्योंकि वहां उग्रवाद और आदिवासियों की अन्य जटिल समस्याओं को हल करने का जिम्मा जिन बड़े अफसरों पर है वे पूर्वोत्तर को पिकनिक की जगह समझते हैं जहां जंगली रहते हैं जो उनके स्वागत में नाचने चले आते हैं. वहां के बहुत-से लोगों की तरह अरुणाचल के मुख्यमंत्री गेगांग अपांग की बहू आद्री ने भी एक मुलाकात में व्यंग्य करते हुए मुझसे पूछा था, ‘आप क्या समझते थे मैं घर में नहीं पेड़ पर बैठी मिलूंगी.’ जबकि वह औरत दिल्ली में पढ़ाई और उत्तर प्रदेश में भंगियों पर रिसर्च करके गई थी. दिल्ली के अफसरों ने वहां दलालों, ठेकेदारों और भ्रष्ट अफसरों का एक विशाल तंत्र विकसित किया है जो आदिवासियों को उन्हीं की नजर से देखता है. सरकार की नजर में वहां की हर समस्या का समाधान या तो दमन है या पैसे बांटना है. माफ कीजिएगा, मीडिया और साहित्य से आप कुछ ज्यादा ही उम्मीद लगाए बैठे हैं जबकि दोनों ही हाइली लोकलाइज्ड धंधे हैं. उन्हें पूर्वोत्तर या किसी और जगह के आम लोगों से क्या लेना-देना. मीडिया ने पूर्वोत्तर को सदा से ब्लैक आउट कर रखा है. कोकराझार और दूसरे बोडो इलाकों में आदिवासियों और मैमनसिंघिया मुसलमानों के बीच मारकाट को जरा तवज्जो इसलिए मिल गई कि उसकी प्रतिक्रिया मुंबई और लखनऊ जैसी रेवेन्यू देने वाली जगहों में होने लगी थी. और रही बात हिंदी साहित्य की तो इन दिनों उसकी सबसे बड़ी समस्या पुरस्कार, अफसर लेखक का ट्रांसफर, बच्चे का इम्तिहान और मिडिल क्लास का सड़ियल प्रेम है. हरिश्चंद्र चंदोला की नागा कथा के कुछ अंशों के कई साल पहले हंस में छपने को छोड़ दें तो लोगों की समस्याओं पर प्रामाणिक ढंग से किसी साहित्यिक पत्रिका में कुछ नहीं छपा है. अब हिंदी का लेखक अपने चरित्रों के भी पास नहीं जाता. लेखक चाहता है कि पात्र खुद आएं और उसके पैरों पर गिर कर अपना हाल बता जाएं.   

पूर्वोत्तर से हिंदीभाषियों  के खिलाफ हिंसा की खबरें आती रहती हैं. आखिर इस इलाके में हिंदीभाषियों के लिए इतनी नफरत  क्यों है?
वहां अलगाव की राजनीति करने वाले लोग चुनावी फायदे के लिए हिंदी बोलने वाले आदमी को इंडिया के प्रतिनिधि के रूप में रंग देते हैं और वह अंधी हिंसा का शिकार बन जाता है. इंडिया शब्द वहां देशप्रेम नहीं दमन और भेदभाव की स्मृति जगाता है. लेकिन इससे भी बड़ा मसला जीने के संसाधनों पर कब्जे का है. पहले असम में जमीन बहुत ज्यादा थी और आबादी कम. तब सबका स्वागत था. लेकिन अब सीमित संसाधनों पर दखल के लिए असमिया, बोडो, मिरी, हिंदीभाषी और बांग्लादेशी मुसलमान सभी जूझ रहे हैं और खूनखराबा जारी है. राजनेता इस जटिल प्रश्न को हल करने के बजाय नफरत को सत्ता पाने की सीढ़ी की तरह इस्तेमाल कर रहे हैं.

क्या आप पूर्वोत्तर की यात्रा पर निकलते समय ही यह तय कर चुके थे कि इस यात्रा संस्मरण को एक किताब की शक्ल में लाएंगे?
नहीं, जाते समय सिर्फ रिपोर्टिंग का इरादा था. किताब के बारे में सोचना उन दिनों की मनःस्थिति में मुमकिन नहीं था. मेरे दोस्त पंकज श्रीवास्तव (जो इन दिनों एक हिंदी समाचार चैनल में हैं) ने यह कह कर एक डायरी जरूर दी थी कि लौटने के बाद वहां के संस्मरणों को दोस्तों के बीच सुना जाएगा. लेकिन लौटते ही मैं प्रेम में पड़ गया. कुछ दिन बनारस में नौकरी की, फिर आदिवासी नायकों पर कामिक्स लिखने, बिरसा मुंडा पर फिल्म बनाने और एक ट्राइबल म्यूजियम बनाने की एक महत्वाकांक्षी योजना पर मुग्ध होकर झारखंड में भटकने लगा जो बुरी तरह फ्लाप हुई. फिर अचानक लखनऊ में घर बस गया. मैं पूर्वोत्तर को एकदम भूल गया. वह तो सेंटर फॉर साइंस एंड इनवायरनमेंट की रिपोर्टिंग फेलोशिप के कारण अरुणाचल का एक और लंबा चक्कर लगा कर लौटने के बाद 2005 में मुद्राराक्षस ने लखनऊ से एक पत्रिका निकाली जिसके लिए यह संस्मरण लिखना शुरू किया. उन्होंने झक में चार अंक बाद पत्रिका बंद कर दी. मैंने लिखना बंद कर दिया. तब से वही पत्रिकाओं, अखबारों, ब्लागों में यदा-कदा छपता रहा और कोई न कोई पाठक या दोस्त कहता रहा कि इसे किताब की शक्ल में आना चाहिए. जब अंतिका प्रकाशन के गौरीनाथ पीछे पड़ गए तब इतने साल बाद मैंने पूर्वोत्तर में पहने कपड़ों, वहां के नक्शों, डायरियों, स्केचों, चिट्ठियों, तस्वीरों, जुटाए गए दस्तावेजों से भरा झोला खोला और उस यात्रा को रिकंस्ट्रक्ट किया. सच कहूं तो यह गौरीनाथ और मेरे बच्चे टीपू की किताब है. वे दोनों न होते तो यह कभी न लिखी जाती. मैं छपने न छपने से उदासीन हो चुका था.   
पत्रकार व लेखक अनिल यादव अपने निराले अंदाज में; फोटो: प्रमोद अधिकारी 
आपने बताया कि आपने एक प्रोजेक्ट के सिलसिले में झारखंड की भी यात्रा की है. क्या इस इलाके के बारे में भी कुछ लिखेंगे?
झारखंड तो मैं एक साल रह गया. इसके अलावा मैं पंजाब, हिमाचल और दक्षिण के छोटे कस्बों और गांवों में भी कुछ वक्त बाइक से बेमकसद भटका हूं. लेकिन अब मैं कुछ ठोस,  शोधपरक काम करना चाहता हूं. ऐसी जगहें जहां सरकार, लोकतंत्र, विकास वगैरह लगभग अनुपस्थित हैं, जहां बस आदमी है और निर्मम प्रकृति है वहां लोग कैसे जीते हैं, इस बारे में लिखना चाहता हूं. मसलन तिब्बत के भीतरी हिस्सों के बारे में रहस्य की जो कहानियां हैं वे मुझे उकसाती हैं. जानना चाहता हूं कि मध्य प्रदेश के अबूझमाड़ के जंगल के भीतर आदिवासी और नक्सली कैसे रहते हैं या एक समुद्री मछुआरे का जीवन कैसा होता है. अगली यात्रा पुस्तक का अस्तित्व मेरे पास संसाधनों के होने न होने पर निर्भर है. हो सकता है मेरी अपनी शर्तों पर कोई प्रायोजक भी मिल जाए.   

पूर्वोत्तर को लेकर अज्ञेय का भी काफी महत्वपूर्ण काम रहा है. उनके काम को किस तरह से देखते हैं?
अज्ञेय के यात्रा वृत्तांत मैं पहले पढ़ चुका था. लेकिन वे कहानियां जो पूर्वोत्तर में घटित होती हैं, मैंने इस यात्रा के दौरान ही पढ़ीं. उनमें भारत और फौज के प्रति असंतोष की ध्वनि है. लेकिन तब से अब के बीच ब्रह्मपुत्र में काफी पानी और खून बह चुका है. अब हर आदिवासी समुदाय की अपनी एक साहित्य सभा है जो उनकी बोली की लिपि बना रही है और एक गुरिल्ला संगठन है जो एक अलग राज्य या देश मांग रहा है. साथ ही उनके गुस्से के ढेरों आदिवासी राजनीतिक सौदागर हैं. लेकिन अज्ञेय के काम और बहुआयामी व्यक्तित्व की हमने क्या कद्र की? हिंदी के गोष्ठीबाजों ने उन्हें रिड्यूस कर एक साहित्यिक गिरोह के नेता और कलावादी के रूप में नई पीढ़ी को पहचनवाया. मुझे लगता है कि हिंदी के पास अज्ञेय के रूप में एक अपना रवींद्र नाथ टैगोर था. हमने उसे नहीं पहचाना और खो दिया.

हिंदी साहित्य का कोई भी नामचीन समीक्षक इस किताब के बारे में कुछ भी लिख-बोल नहीं रहा है.
हिंदी के दो बड़े लेखकों स्वयं प्रकाश और ज्ञानरंजन ने इस किताब की समीक्षा की है. टीवी और प्रिंट के कुछ अच्छे पत्रकारों ने भी रिव्यू किया है इसलिए यह कहना कि कोई लिख-बोल नहीं रहा है, ठीक नहीं होगा. दूसरी बात, मैं नितांत निजी वजहों से लिखता हूं इसलिए आलोचकों, समीक्षकों की परवाह नहीं करता और उनसे किसी प्रकार की अपेक्षा नहीं रखता. मुझे लगता है कि लेखक जरा उपेक्षित और गुमनाम रहकर ही अच्छा काम कर सकता है. उपेक्षा मेरे भीतर की आग को लहकाने का काम करती है. ज्यादा नामवरी किसी भी लेखक के लिए फंदा है जो फंसा कर अपनी कीमत अंततः वसूल ही लेती है. आलोचना अब रचना को विश्लेषित करने के बजाय चमचे और विपुल मात्रा में घटिया साहित्य निर्मित करने का जरिया बन रही है. हिंदी का सबसे बड़ा आलोचक सबसे बड़ा जोकर बन चुका है. असल बात यह है कि यदि आपकी विषयवस्तु में दम है तो नामचीनों की चुप्पी के बावजूद अपनी जगह बना लेंगे. नहीं तो कितनी भी शुरुआती हाइप बना लें फुस्स हो जाएंगे.