शुक्रवार, दिसंबर 11, 2009

ठण्ड की काली रात में......

ठण्ड की काली रात में......
कांपती हुई,
सिकुड़ी हुई है.
तंग कपड़ों में लिपटी,
सड़क किनारे लुढ़्की हुई है.
 
गोद में समेटे बच्चे को,
शीतलहर से लड़ रही है.
लड़ते-लड़्ते हांफ रही है,
और सांसों की खुलती गठरी को बांध रही है.
ठण्ड की काली रात में......

अपनी जिन्दगी जी चुकी है,
ऐसी अनगिनत काली और ठण्डी रातें,
सड़क किनारे, स्ट्रीट लाईट में काट चुकी है.

अब, और जीने की चाह नहीं है लेकिन जिन्दा है,
अपने बच्चे की खातिर, जो उससे गर्मी ले रहा है,
और चैन से सो रहा है.
इस ठण्ड की काली रात में....

4 टिप्‍पणियां:

Rajeysha ने कहा…

दर्द का बेहतरीन चि‍त्रण कि‍या है।

sonal ने कहा…

आप की कविता ने प्रेमचन्द्र जी की "पूस की रात " की याद दिला दी , बहुत सुंदर

Unknown ने कहा…

bahut acchi hai...or title bhi bahut acha likha hai....jo batt ehshas karane ki koshish ki gai hai....wo kamiyab hai..

Unknown ने कहा…

ठंढ की काली रात में सिसकती जिन्दगी का जो चरित चित्रण आपने किया है वो बड़ा ही मार्मिक और हृदय्स्पशी है |गरीब की गरीबी को ठंढ के आसरे से बचाने के लिए आपके शब्द यथोचित साबित हो रहे है |अपने इस छोटे भाई की शुभकामना स्वीकार करें |