धर्म हमारे यहां एक बेहद संवेदनशील विषय हैं. धर्म या भगवान के बारे में कुछ भी बोलने से लाखों लोगों की भावनाएं ऐसे भड़कती हैं जैसे अपनी परछाईं को देखकर भेड़ या लाल कपड़े को देखकर सांड़ भड़कता है. मुझे तो लगता है कि इन्सान इस विषय पर ऐसा भड़कता है कि कुछ देर के लिए मरखंड से मरखंड़ साड़ भी शरमा जाए.
क्यों हम अपने धर्म के बारे में आलोचना का एक शब्द भी नहीं सुनना चाहते. क्यों हम राम को न मानने वालों को चलती ट्रेन से फेंक देने की धमकी दे देते हैं? क्यों हम इस बारे में कोई तर्क नहीं करना चाहते और तर्कपूर्ण बातों को भी अपनी थोंथी दलीलों से पोत देना चाहते हैं?
मेरी समझ से ऐसा इसलिए होता होगा क्योंकि हम नहीं चाह्ते कि कोई हमारी सोच पर प्रहार करे बल्कि यह चाहते हैं कि हम चीजों को जैसे देख रहे हैं, समझ रहे हैं दूसरे भी वैसा ही समझें और देखें. उसी राह पर चलें जिस राह पर हम चल रहे हैं. वैसे तो भगत सिंह को इस देश में बहुत इज्जत दी जाती है लेकिन धर्म और भगवान के बारे में कही गई उनकी बातों को लोग सिरे से नकार देते हैं.
मेरा ऐसे कुछ कट्टर हिन्दूओं से पाला पर चुका है. आगे कुछ भी कहने से पहले मैं यहां एक बात साफ कर देना चाहता हूं कि जिन लोगों से मैं उस ट्रेन में मिला वो विश्व हिन्दू परिषद या बजरंग दल के कार्यकर्ता नहीं थे बल्कि हमारे आपके जैसे आम लोग थे. जो एक आम ज़िन्दगी जीते हैं.
मेरा ऐसे कुछ कट्टर हिन्दूओं से पाला पर चुका है. आगे कुछ भी कहने से पहले मैं यहां एक बात साफ कर देना चाहता हूं कि जिन लोगों से मैं उस ट्रेन में मिला वो विश्व हिन्दू परिषद या बजरंग दल के कार्यकर्ता नहीं थे बल्कि हमारे आपके जैसे आम लोग थे. जो एक आम ज़िन्दगी जीते हैं.
बात ज्यादा पुरानी नहीं है. मैं अपने भाई को बंग्लौर पहूंचा कर ट्रेन से पटना लौट रहा था. संघमित्रा एक्सप्रेस में मेरे साथ जो और सहयात्री थे उनमे से ज्यादातर बिहार या उत्तर प्रदेश के थे. वो लोग भी अपने-अपने बेटे-बेटियों को पहुंचा कर लौट रहे थे. ट्रेन में बैठने के थोड़ी देर बाद ही हम सब की जान पहचान हो गई.
शम 6:30 की गाड़ी थी सो पहली रात में हल्की-फुल्की बातचीत हुई और फिर हम सब अपने अपने बर्थ पर सो गए. दूसरे दिन जैसे-जैसे गाड़ी आगे बढ़ रही थी हमारी बातचीत भी परवान चढ़ रही थी. दिनभर वही सब बातें होती रहीं जो अक्सर ट्रेन और बसों में यात्रा के दौरान होती हैं. जिन्हें आप रास्ता कटाउ बातें भी कह सकते हैं लेकिन जैसे-जैसे दिन ढलने लगा वैसे-वैसे ही बातचीत का माहौल भी बदलने लगा.
शम 6:30 की गाड़ी थी सो पहली रात में हल्की-फुल्की बातचीत हुई और फिर हम सब अपने अपने बर्थ पर सो गए. दूसरे दिन जैसे-जैसे गाड़ी आगे बढ़ रही थी हमारी बातचीत भी परवान चढ़ रही थी. दिनभर वही सब बातें होती रहीं जो अक्सर ट्रेन और बसों में यात्रा के दौरान होती हैं. जिन्हें आप रास्ता कटाउ बातें भी कह सकते हैं लेकिन जैसे-जैसे दिन ढलने लगा वैसे-वैसे ही बातचीत का माहौल भी बदलने लगा.
हम लोगों के साथ एक मुस्लिम लड़का भी सफर कर रहा था. वह ज्यादा पढ़ा लिखा नहीं जान पड़ता था. बात कहीं से घूमते फिरते धर्म और खासकर इस्लाम धर्म के बारे में होने लगी थी. करीब करीब चार लोग आरोप लगा रहे थे और अकेले वह लड़का अपनी पूरी क्षमता से अपने धर्म का बचाव कर रहा था. इस सब में एक मोटे ताजे पंडित जी भी थे जो उत्तर प्रदेश से ताल्लुक रखते थे.
वो कुछ ज्यादा ही आरोप लगा रहे थे. जैसे इस धर्म में तो बच्चे को पैदा होते ही मारकाट सिखाया जाता है. वो अपनी बात को साबित करने के लिए हर फालतू से फालतू तर्क का सहारा ले रहे थे.
वो कुछ ज्यादा ही आरोप लगा रहे थे. जैसे इस धर्म में तो बच्चे को पैदा होते ही मारकाट सिखाया जाता है. वो अपनी बात को साबित करने के लिए हर फालतू से फालतू तर्क का सहारा ले रहे थे.
जैसे अपनी उपर कही बात को साबित करने के लिए उन्होंन तर्क दिया कि मुस्लमानों में लड़कों का खतना होता है और खतना इसलिए होता है कि वो खून देख सके और आगे के लिए तैयार हो सके.
इन सब के बीच मैं चुप था और सोच रहा था कि जल्दी से जल्दी यह विषय बंद हो लेकिन वो तो बोलते ही जा रहे थे. उन्हें पता था कि मैं पेशे से पत्रकार हूं सो उन्होने इस बारे में राय मागीं. लेकिन मैंने कुछ भी कहने से मना कर दिया. अब उनके साथ-साथ पटना के भी कुछ लोगों ने मुझसे बोलने के लिए कहा.
मैं बोलना तो चाहता ही था लेकिन माहौल को देखकर चुप था. मैंने उन सभी से कहा कि मैं इस विषय में इसलिए कुछ नहीं बोलना चाहता क्योंकि मैं किसी भी धर्म और किसी भी भगवान नामक सत्ता पर विश्वास नहीं करता. पर बोलना पड़ा. उत्तर प्रदेश वाले पंडित जी ने मुझ पर सवालों की झरी लगा दी. जैसे मेरे पापा का क्या धर्म है? अगर भगवान नहीं है तो यह दुनिया कैसे चलती है? अगर कोई शक्ति नहीं है तो मैं कहां से पैदा हुआ?
ये वही कुछ सवाल थे जो हर एक आस्तिक, एक नास्तिक के सामने रखता है. मैंने भी पूरी कोशिश की जबाव देने की और उन्हें संतुष्ट करने की लेकिन वो नहीं माने. मैंने अपनी बात को भगत सिंह और राहुल संस्कृतायन के सहारे भी कहने की कोशिश की लेकिन कोई फयदा होता नहीं दिखा. हालात इस तरह के हो गए थे कि उस पूरे ड्ब्बे में केवल दो लोग बोल रहे थे. एक पंडित जी और एक मैं.
कुछ लोग बीच-बीच में पंडित जी के साथ हो जाते थे. मैं बिलकुल अकेला पड़ रहा था. सो सोचा कि बात ही बंद कर दूं. लेकिन वो मुझे ऐसा भी नहीं करने दे रहे थे. उनकी बे तर्क की बातें सुन-सुन कर मुझे गुस्सा आ रहा था लेकिन मैं संयम से उनकी हर बात का जवाब देने की कोशिश कर रहा था. उनका चेहरा लाल हो गया था. वो बोलते-बोलते मेरे बिलकुल पास वाली सीट पर आ गए थे.
उन्होंने कहा कि इतने सारे लोग जो धर्म और भगवान को मानते हैं क्या वो सारे बेवकूफ हैं? मैंने कहा, ऐसा नहीं है लेकिन वो सारे लोग मुझे अंधे लगते हैं जिन्हें केवल अपना धर्म और अपना भगवान दिखता है. क्या है भगवान का अस्तिव? किसने देखा है भगवान को
उन्होंने कहा कि इतने सारे लोग जो धर्म और भगवान को मानते हैं क्या वो सारे बेवकूफ हैं? मैंने कहा, ऐसा नहीं है लेकिन वो सारे लोग मुझे अंधे लगते हैं जिन्हें केवल अपना धर्म और अपना भगवान दिखता है. क्या है भगवान का अस्तिव? किसने देखा है भगवान को
ये अंधापन नहीं है तो और क्या है कि एक पथर की मुर्त्ती जो बिना आपकी मदद से हिल भी नहीं सकता उसमे आपको अपना भगवान दिखता है. आप उस राम को जपते हैं और मर्यादा पुरुष कहते हैं जो अपनी गर्भवती पत्नी को अकेले जंगल में छोड़ देता है. मैंने कहा, अगर आपके राम आज होते तो उनकी पत्नी ने तलाक ले लिया होता और वो जेल में सजा काट रहे होते.
मेरे इतना कहते ही उनका गुस्सा सातवें आसमान पर पहूंच गया और उन्होंने मुझे चेतावनी देते हुए कहा, “अगर तुमने आगे एक शब्द और बोला तो यहीं ट्रेन से फेंक दूंगा.”
उनके इस बोल के साथ ही वो बातचीत खत्म हो गई. वो अपने बर्थ पर चले गए और सारे लोग मुझे सांत्वना देने लगे और मैं उस वक्त बिल्कुल शांत था. आसपास खड़े किसी ने भी उनको यह नहीं कहा कि आपने गलत बोला. इसके उलट कुछ लोग मुझे ही समझा रहे थे कि ऐसे नहीं बोलना चाहिए था.
शायद सही कह रहे थे वो लोग कि मुझे अपने विचार नहीं रखने चाहिए थे. चुप रहना चाहिए था क्योंकि यहां वैसे लोग नहीं चाहिए जो धर्म के पाखंड में नहीं पड़ना चाहते हैं और इस बारे में खुल कर बोलना चाहते हैं.
5 टिप्पणियां:
aisi situation se hum jaise sabhi log guzarte hain...aapne jokaha wo bikul sahi hi, ye log na kuch sunna chahte hain na kuch janna chahte hain...jaise ek bachcha apne khilone ke toot jaaen par ghar mein bawal machala hai...waise hi ye log bhi dimag sebachche hi hote hain ...inki soch aur aastha par sawal uthaya to tootne ke darr se bawal machane lagte hain...
"चुप हो जाओ नहीं तो चलती ट्रेन से फेंक दूंगा'
शीर्षक की गंभीरता को भांपते हुए ऐसा प्रतीत हो गया था कि कुछ ही ऐसी ही बात लिखी होगी आपने |धर्म के मर्म में फसे ये मूढ़ शायद ये नहीं जानते है कि इस धर्म ने हमें वो इतिहास दिया है जिसमे हम कभी गुलाम तो कभी दास का जीवन जी चुके है |इस बंधन में बंधकर ही तो हम जन्मांध एक ऐसा रुख अख्तियार करते है कि लम्बी दाढी वाला आतंकवादी दिख पड़ता है,और लम्बी शिखा वाला ढोंगी |सशक्त शब्दों में धर्म का सही मूल्यांकन और चरित्र चित्रण किया है आपने| आपके इस आलेख को पढ़ते हुए मान आह्लादित हो उठा |बहुत ही बढ़िया सोच
धर्म का मूल चरित्र ही फ़ासिस्ट और विज्ञान विरोधी होता है। फिर चाहे वह हिन्दू धर्म हो, इस्लाम, ईसाई धर्म,या कोई और।
अच्छा आलेख है परन्तु पढ़ कर कोई आश्चर्य नहीं हुआ।
सब के सब चोर हैं ससुरे...
वो कहते हैं की उन्हे भगवान ने पैदा किया.. इसका अर्थ तो यही हुआ ना कि ये नाजायज़ लोग हैं, जो निकले तो अपनी मां की कोख से हैं लेकिन पैदा भगवान ने किया... भगवान का उनकी मां से अफ़ेयर चल रहा था क्या?
पूछना चाहिये था आपको...?
आपका ये पोस्ट मैं अपने ब्लॉग पे लगा रहा हूं, उम्मीद है आपको ऐतराज नहीं होगा..
वैसे कठमुल्लों के बीच फंसे होते तो फेंक दिये गये होते बोला कुछ नहीं होता...
एक टिप्पणी भेजें