रविवार, अप्रैल 25, 2010

क्या रैलियों में आम आदमी होता है?



कभी-कभी सोचता हूं कि अगर हमारे देश से गरीबी, भुखमरी, महंगाई और बेरोजगारी खत्म हो जाए तो इन नेताओं की गाड़ी कैसे चलेगी? ये कैसे विधायक, मंत्री और न जाने क्या-क्या बन कर लालबत्ति की गाड़ी से सायरन बजाते हुए जाएंगे और आएंगे? कैसे इनके चेहरे की लाली और बैंक खाते की हरियाली बनी रहेगी?
फिर भी हर नेता (चाहे वो कोई छुट्भैया नेता ही क्यों न हो) अपनी हर बैठक, हर सभा में इन्हीं मुद्दों को खत्म करने की बात करता हुआ दिखता है. वैसे तो होना यह चाहिए कि जहां से दाल-रोटी चलती है उसकी सलामती की दुआ करनी करिए  और आम आदमी करता भी यही है लेकिन अपने नेता, जनसेवक इस मामले में भी अलग हैं.
खैर, अब मैं भी असली मुद्दे की तरफ़ आना चाहता हूं. 21 अप्रैल के दिन देश की मुख्य विपक्षी पार्टी बीजेपी ( यह पार्टी पिछले कुछ दिनों से केवल नाम की विपक्षी पार्टी बन कर रह गई थी) ने महंगाई के मुद्दे पर केन्द्र की यूपीए सरकार को घेरने के लिए देश भर से लोगों को दिल्ली के रामलीला मैदान में इकट्ठा किया. 
करीब-करीब तीन लाख की भीड़ थी. बात भी सही है केवल भीड़ ही थी. रामलीला ग्रांउड ही नहीं इसके आसपास के कई इलाकों ने भी इस दिन यही महसूस किया कि आए लोग केवल एक भीड़ थे. जिन्हें  इतना पता था कि जब-जब  टीवी या फोटो कैमरा उनकी तरफ घुमे तो किस तरह के नारे लगाने हैं और अगर कोई बड़ा नेता सामने से (आखों पर धूप का चश्मा पहने) हाथ हिलाता हुआ  गुजरे तो उसका दिखावटी अभिवादन किस तरह से  करना है. मैं यह सब इसलिए कह पा रहा हूं क्योंकि  मैं भी इस दिन बतौर फोटो-पत्रकार  रामलीला ग्राउंड में मौजुद था.
मैने इसी दौरान यह महसूस किया कि यहां जिन लोगों को आम लोगों का मुखौटा पहना कर, हाथ में पार्टी के झंडे और सर पर कमल खिला कर बिठाया गया था वो केवल बैठने और समय-समय पर एक-आध नारा लगाने के लिए ही बुलाए गएं थे और वो अपना काम बखूबी कर रहे थे. यहां इस रैली में आए ज्यादातर लोगों का न तो महंगाई से कोई सरोकार था और न ही इनकी कमर महंगाई से टूटी और झुकी जा रही थी. आए हुए लोगों को देख कर मुझे ऐसा ही लगा. इनमें से ज्यादातर लोगों के लिए तो यह दिल्ली दर्शन करने का एक अनूठा मौका था सो  आ गए. 
चिलचिलाती धूप में पंडाल के नीचे बैठ लिए और चुंकी भेजने वाले ने कहा था कि वहां जाकर खूब जोर-जोर से नारे लगाने हैं सो लगा लिया. पंडाल में सबसे आगे बैठे कुछ लोग जिन पर धूप सीधे-सीधे पहूंच रही थी वो सुबह के 10 बजे ही इस बारे में बात कर रहे थे कि और कितना समय लगना है यहां. इनकी बातचीत सुनने का मौका मिला तो पता चला कि सभा खत्म होने के बाद ये लोग सबसे पहले इन्डिया गेट फिर अक्षरधाम मंदिर जाएंगे. धूप से और गर्मी से सब के सब बेचैन थे लेकिन पता नहीं क्यों कोई भी पंडाल से उठ कर कहीं छांव में नहीं जा रहा था. 
सब के सब वहीं जमे थे जैसे किसी ने सख्त हिदायत दी हो कि कोई भी पंडाल से बाहर नहीं जाएगा. मेरा कैमरा पूरे पंडाल से लेकर सड़्क तक आम आदमी के उस चेहरे को खोजता रहा जो सही में महगाईं  की मार झेल रहा है लेकिन अफसोस ऐसा कोई भी चेहरा मेरे लेंस के दायरे में नहीं आ सका. हर दफा वही चेहरे सामने आते रहे जो मुंह में पान या गूट्खा दबाए, सर पर पार्टी का झंडा बांधे या पूरे बदन पर ही पार्टी का झंडा लपेटे हुए घूम रहे थे. 
लेकिन मंच पर बैठे लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, सुषमा स्वाराज और पार्टी के नए नवेले अध्यक्ष नीतिन गडकरी इसी भीड़ में आम आदमी को बार-बार देख रहे थे. तभी तो ये सारे नेता अपने-अपने भाषण में बार-बार कह रहे थे कि यह रैली भाजपा की नहीं आम लोगों की है. मुझे नहीं मालुम कि  जनता के इन सेवकों को इस रैली में किस तरह से और कौन सा आम आदमी दिख गया?
खैर, मुझे तो अंत-अंत तक यह भे नहीं मालुम हुआ कि यह रैली पार्टी के नेताओं ने बुलाई क्यों थी? पार्टी के बड़े से बड़े नेता के पास भे मंच से कहने को कुछ खास नहीं था. हर कोई वही बात कर-कर के अपनी कुर्सी पर बैठता गया जिसे देश भर के लोग चाय की दूकान चाय पीते हुए पर या पान की दूकान पर पान खाते हुए करते हैं. 
किसी भे नेता के पास कुछ भी ऐसा कहने को नहीं था जिससे लगे की हां, इस पार्टी में दम है या ऐसा लगे कि अगर यह पार्टी कल सत्ता में आती है तो महंगाई समेत आम आदमी की बहुत सी मुश्किलें आसान होंगी. ऐसा लग रहा था कि मंच से बोलने वाले ज्यादतर नेता गहरी थकान महसूस कर रहे हैं. हो सकता है कि यह थकान एसी  कमरे से बाहर निकलने की वजह से भी हो रही हो. वैसे भे इस तरह की गर्मी से इन नेताओं का रोज का तो कोई वास्ता होता ही नहीं है. 
भाषण खत्म होने के बाद जब संसद तक जाने की बारी आई तो वहां भी यह दिख गया कि आम, आम ही होता है और खास-खास होता है. सभा के बड़े नेता चार गाडियों में सवार हो लिए बाकी के लोग उनके साथ पैदल ही चल पड़े.
इसी बीच एक घटना और हुई कि गर्मी की वजह से पार्टी के नए-नवेले अध्यक्ष को गस्त(चक्कर) आ गया और वो वहीं जमीन पर लुढ़क लिए. अब कोई बताए कि क्या ऐसे होगी लड़ाई महंगाई से?



3 टिप्‍पणियां:

honesty project democracy ने कहा…

उम्दा सोच पर आधारित प्रस्तुती के लिए धन्यवाद / ऐसे ही सोच की आज देश को जरूरत है / आप ब्लॉग को एक समानांतर मिडिया के रूप में स्थापित करने में अपनी उम्दा सोच और सार्थकता का प्रयोग हमेशा करते रहेंगे,ऐसी हमारी आशा है / आप निचे दिए पोस्ट के पते पर जाकर, १०० शब्दों में देश हित में अपने विचार कृपा कर जरूर व्यक्त करें /उम्दा विचारों को सम्मानित करने की भी व्यवस्था है /
http://honestyprojectrealdemocracy.blogspot.com/2010/04/blog-post_16.html

अजय कुमार झा ने कहा…

आपने सही जगह पर चोट की है , यदि रोजमर्रा के मेरे आसपास के आम लोगों की बात कर रहे हैं तो कतई नहीं , मैंने उन्हें किसी रैली वैली में जाते नहीं देखा , और सच परखा कि इन रैलियों मे सिर्फ़ गरीब और गरीब ही बहका के लाए जाते हैं या शायद जबरन भी

बेनामी ने कहा…

सही चोट मारी है आपने.... बस एक शिकायत है... कुछ पैराग्राफ़ का हेर-फ़ेर करते तो शायद और असरदार लगता.. मसलन.. पहला पैरा सबसे अंतिम होता तो शायद ज़्यादा मज़ा आता...

बहरहाल बढिया प्रयास था.