झरखंड में जन्मी और दिल्ली में पत्रकारिता करने वाली निरुपमा आज इतिहास बन चुकी है. निरुपमा को किसी खाप पंचायत के सरपंच ने नहीं मारा. उसका गला घोटने वाले उसके अपने थे. शायद, उसके मां-बाप. वैसे हमारे देश के लिए यह कोई नई और अचरज में डालने वाली घटना नहीं है.
अगर कुछ चौकाने वाला है तो वो है देश के मध्यम वर्ग का वो डरावना और खूनी चेहरा जो अपने ऊपर कई नकाब डाले रहता है. इस वर्ग को वो सब कुछ चाहिए जिससे इसका नाम हो. बेटा, बेटी पढ़े. अच्छी नौकरी करे. खूब पैसे कमाएं और बुढापे में इनकी खूब देखभाल करे.
न तो निरुपमा अनपढ़ थी और न ही निरुपमा के जन्मदाता. निरुपमा के पापा एक सरकारी बैंक में बाबू थे और जब उनकी बेटी ने दिल्ली आ कर पत्रकारिता करने की ठानी होगी तो वो अपने समाज में अपना ओहदा बढ़ा हुआ पाते होंगे.
आते-जाते लोगों को यह बताते होंगे कि मेरी बिटिया देश के नंबर वन मीडिया संस्थान में पढ रही है और कल एक फेमस टीवी जर्नलिस्ट बनेगी.
लेकिन जैसे ही बिटीया ने अपनी मर्जी से शादी करने की ठानी और इस बात का ख्याल नहीं रखा कि वो एक पंडित है.
इनलोगों ने अपनी ही बेटी को सुला दिया और कहने लगे कि निरुपमा ने आमहत्या की है. अपनी बेटी की मौत पर आंसू बहाने के बदले पोस्टमार्टम की रिपोर्ट को ही झूठा बतलाने लगे.
यहीं से दिखने लगा इस क्लास का असली चेहरा जो साफ-साफ कह रहा है कि इन्हें अपने बच्चों की खुशी से ज्यादा अपनी झूठी शान प्यारी है. अपनी शान के लिए ये लोग अपने बच्चों को झूठ बोलकर घर बुला सकते हैं. रात में सोते समय अपने घर के भीतर ही उसका गला घोट सकते हैं और बाद में सबके सामने खुल कर कह सकते हैं कि बेटी ने आत्महत्या की है. हद है. इस समाज पर घिन्न आती है.
7 टिप्पणियां:
kya kahoon....sochti hun jo pita apni beti ko apni jaan kehta hai wo uski jaan kaise le sakta hai...aisa apne bete ke saath to katayee nahi karta ....
अगर ये सच है...तो यह बेहद शर्मनाक और दुखद घटना है...
हालांकि honour killing कोई नयी बात नहीं है...फिर भी, अगर पढ़े लिखे लोग भी यही रास्ता इख्तियार करते हैं तो फिर स्थिति दैयनीय है...
jis ka bap hi assa ho us par kya tippani kare
पूरे समाज में इज्ज़त का बोझ सिर्फ़ लड़कियां क्यों ढोती रहे. और कैसी इज्ज़त? कौन कहता है कि मां बाप के प्यार से बड़ा कोई प्यार नहीं? सब बकवास है. बेहूदा बातें हैं. उन्हे सिर्फ़ इस हरामी जात और घटिया बिरादरी से प्यार है. उसे खोना मतलब खुद को खो देना. इस्लिये खून करते रहो निरुपमाऒ का.. लेकिन देख लेना एक दिन तुम्हे बदलना होगा... कितनी निरुपमाओं को मारोगे?
आपने बिलकुल सही कहा है विकास बाबू आज ऐसे अभिभावकों की कोई कमी नहीं है जो अपने झूठे स्वाभिमान के लिए अपने बच्चों तक का गला घोटने को तैयार है |निरुपमा अकेली उदाहरण नहीं है ऐसी कई निरुपमा है जिन्हें हम और आप जान भे नहीं पात क्योंकि न वहां कोई मीडिया है और ना उनकी बात को कोई उठाने वाला | सशक्त लेखन का एक और नायाब उदाहरण वैसे आपके लेखन में समाज के भ्रष्ट कुरीतियों के खिलाफ आक्रोश को स्पष्ट देखा जा सकता है|
स्नेह समेत आपका अनुज
गौतम
विकास जी.
नमस्कार.
मोहल्ला पर आपकी टिप्पणी के लिए धन्यवाद. चुकि वहां मेरी टिप्पणी अप्रूव किया जाता या नहीं यह मुझे नहीं मालूम इसलिए यहाँ आपको जबाब दे रहा हूं. मेरे शीर्षक पर जो आपत्ति आपको हुई है वह जायज ही है ...मैंने ऐसा कोई फतवा जैसा शीर्षक नहीं दिया था....मेरा शीर्षक था "मैंने मंजिल को तलाशा मुझे खूंखार मिले" मैंने बार-बार उस आलेख में कहने की कोशिश की है कि कोई निष्कर्ष नहीं दे रहा हूं ना ही मेरे पास कोई निष्कर्ष है..बस मैंने इतना ही निवेदन करने का प्रयास किया वहां कि आपको जो उचित लगे वो कीजिये लेकिन कूद कर नतीजे पर ना पहुचें साथ ही भले ही हम माने या ना ,मानें लेकिन जाति-गोत्र आदि भी आज के समाज की सच्चाई है और आप इसको बिलकुल खारिज भी नहीं कर सकते...मेरे ख्याल से वहां मोडरेटर का टिप्पणी भी अनावश्यक था.
ऊपर नाम देना छोट गया था माफ कीजिये....मैं पंकज झा हूं.
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