बुधवार, अगस्त 05, 2009

इकबाल की नज्म “मजहब नही सिखाता….” की जरुरत न हो.


आप सभी को याद होगा, इकबाल का वो गाना, “मजहब नही सिखाता आपस मे बैर रखना……”. हम सब गहे-बगाहे इस गीत को गुनगुना लेते हैं और अपने अपने धर्म की पीठ थपथपा लेते हैं।


लेकिन क्या वास्तव मे ऐसा है? मुझे तो नही लगता. मैने जब से होश संभाला है यही देखा है कि लोग धर्म के नाम पर ही आपस मे लडते हैं और एक दूसरे का खून बहाते हैं.

देश मे आज तक जितने भी बडे दंगे हुए, जितनी भी मारकाट हुई और आज पूरे विश्व मे जो कुछ भी हो रहा है उस सब के पीछे कहीं न कही धर्म का आधार लिया जा रहा है।


अब यहाँ कुछ लोगों का तर्क हो सकता है कि जो लोग ऐसा करते हैं वो धार्मिक नही हो सकते और उनको अपने धर्म के बारे मे कुछ पता नही है लेकिन यह कौन तय करेगा कि किसे धर्म की जानकारी है और किसे नही।




मै पुछना चाहता हूँ कि क्या अयोध्या की एतिहासिक मस्जिद गिराने वालों को धर्म की समझ नही थी, गुजरात मे हर-हर महादेव का जयघोश करते हुई मार-काट करने वाले धार्मिक नासमझ थे या फिर यह कहूँ कि जेहाद के नाम पर मुस्लिम युवकों को बहकाने वालों को हमसे और आपसे धर्म का पाठ पढना चाहिए।




धार्मिक किताबों मे जो बातें कही गई है उन्ही को आधार बना कर हर धार्मिक नेता, मुल्ला और पण्डित अपने-अपने कामों को सही साबित करते हैं तो असली कसूर किसका है मेरे हिसाब से तो……….. आगे नही कहूँगा नही तो कुछ कथित धार्मिक लोगों की भावनाएँ भडक जाएँगी।




मैं बस इतना कहना चाहता हूँ धार्मिक मामलों मे कसूर किसी व्यक्ति विशेष का नही हो सकता वो तो अपने धर्म के कहे मुताबिक ही काम करता है. असली दोषी तो धर्म है।



अंत, मे एक सवाल, क्या हम ऐसे समाज की कल्पना नही कर सकते जिसमे इकबाल की नज्म “मजहब नही सिखाता….” की जरुरत न हो. जिसमे किसी मन्दिर, मस्जिद और गुरुदारे के लिए कोई जगह न हो और न ही इनके बनाने और गिराने के लिए आपस मे लड़ने और झगडने की आवश्यकता रहे.
जहाँ हमारी पहचान एक इन्सान के रूप मे हो न कि किसी धर्म के गुलाम के रूप मे.

आप सब के जवाब का इन्तजार है……….







4 टिप्‍पणियां:

Mohammed Umar Kairanvi ने कहा…

भाई हमतो भूलना चाहते थे लेकिन मोबाइल वालों ने भूलने ही नहीं दिया, हर एक इसकी टयून लिये फिर रहा, एक बात इस गाण के संबंघ में और बतादूं कि इस कली से आगे लाखों में से एक जानता है कि किया है,

सारे जहाँ से अच्छा हिन्दुस्ताँ हमारा
हम बुलबुलें हैं उसकी ये गुलसिताँ हमारा

ग़ुरबत में हों अगर हम रहता है दिल वतन में
समझो वहीं हमें भी दिल हो जहाँ हमारा

पर्वत वो सब से ऊँचा हमसाया आसमाँ का
वो सन्तरी हमारा वो पासबाँ हमारा

गोदी में खेलती हैं जिस की हज़ारों नदियाँ
गुलशन है जिस के दम से रश्क-ए-जिनाँ हमारा

ऐ आब-ए-रूद-ए-गंगा वो दिन है याद तुझ को
उतरा तेरे किनारे जब कारवाँ हमारा

मज़हब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना
हिन्दी हैं हम वतन है हिन्दुस्ताँ हमारा

यूनान-ओ-मिस्र-ओ-रोमा सब मिट गये जहाँ से
अब तक मगर है बाक़ी नाम-ओ-निशाँ हमारा

कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी
सदियों रहा है दुश्मन दौर-ए-ज़माँ हमारा

'इक़बाल' कोई महरम अपना नहीं जहाँ में
मालूम क्या किसी को दर्द-ए-नेहाँ हमारा

............
रश्क=प्रतिस्पर्धा; जिनाँ=स्वर्ग; महरम=रहस्य वेत्ता; नेहाँ=गुप्त

पत्रकार ने कहा…

बाद में यही इक़बाल साहब पाकिस्तान चले गए थे और उन्होंने इस नज़्म के हिन्दुस्तान शब्द को पाकिस्तान से रिप्लेस कर दिया था। खैर
हमें तो अपने लिए प्रेरणा लेनी है न........

बेनामी ने कहा…

मेरे दिल की बात को आपके जुबां से कहने के लिए शुक्रिया... विकास भाई रास्ते पर तो हम निकल चुके हैं... और सच तो यही है कि धर्म एक षडयंत्र है जिसमे पूरी कि पूरी दुनिया उलझी हुई है.. ख़ुशी है कम से कम आप, हम, और हमारे जैसे कुछ और लोग इस मुआमले में हमारे साथ है... मजहब है तो जंग है, दंगा है, फरेब है.... जिस दिन ये ख़तम उस दिन अमन कि कल्पना की जा सकती है...

गाना तो कहता है मजहब नहीं सिखाता, आपस में बैर रखना... पर हकीकत तो तही है.. कि "मजहब ही है सिखाता, आपस में बैर रखना"..

अछा लगा आपको पढ़कर.. लिखते रहिये..

Unknown ने कहा…

विकास जी आपकी भावनाओं की कद्र करती हूं और इस बात से भी सहमत हूं कि आज अराजकता धर्म के नाम पर ही फैलती है..ये एक ऐसा हथियार बन चुका है कि कोई भी आसानी से इस्तेमाल कर बहुत कुछ कर सकता है...भारत में हुए किसी भी धार्मिक दंगों का उदाहरण ले सकते है लेकिन सबसे अहम बात ये है.. कोई भी धर्म ऐसा करने की राह नहीं दिखाता ये तो कुछ धर्म के ठेकेदार है जिन्होंने धर्म को नई परिभाषा देकर एक हथियार बना लिया है जिसकी आड़ में हज़ारों बेकसूर मारे जाते है..खैर ये तो ऐसा विषय है जिसपर चर्चा हमेशा से होती रहीं है उम्मीद करती हूं आपकी इस कोशिश से शायद कोई हल भी निकल सके....।