रविवार, सितंबर 20, 2009

लघु कहानी: ये तो सड़े हुए थे....!

(लेखक दोस्त कबीर कृष्ण की कलम से दुसरी कहानी आप सब के लिए।)
पिछली गर्मी की छुटियों में मैं घर जा रहा था।
अगले दिन की सुबह जब नींद खुली तो मेरी ट्रेन इलाहाबाद स्टेशन पर रुकी हुई थी।
मैं उत्सुकतावश खिड़की से बाहर देखने लगा।
तभी प्लेटफार्म की भीड़ से कोई दस वर्षीय लड़का अपने गले में अमरुद की टोकरी लटकाए मेरे पास आया,
....और कुछ फल खरीद लेने की प्रार्थना की।
मैंने उसे अनदेखा कर दिया।
तभी एक लम्बी सीटी के साथ मेरी ट्रेन पटरियों पर खिसकने लगी।
मुझे अचानक एक शरारत सूझी।मैंने उस लड़के को आवाज दी और जल्दी उसे आधा किलो अमरुद देने को कहा।उसने हड़बड़ी में कुछ फल तौले और लगभग दौड़ते हुए उसे मेरी तरफ बढा दिया।
मैंने भी अपनी जेब से दस रुपये का एक मुडा-तुडा नोट निकाला और उसे उसके हांथो में धरते हुए फल की थैली लपक ली.
तब तक ट्रेन की रफ्तार बहुत बढ़ चुकी थी.
उस लड़के ने बड़ी व्यग्रता से भागते हुए मेरे हांथो से नोट को पकडा और धीरे-धीरे खड़े होकर नोट को सीधा करने लगा।पर वो नोट तो बुरी तरह फटा हुआ था.वह बड़ी देर तक बड़ी दीनता से मेरी ट्रेन को निहारता रहा.मेरे चेहरे पर विजयी मुस्कान थी.अब मैंने फलो की थैली खोली और बड़े गर्व के साथ अमरुद खाने लगा.

पर ये क्या ये तो सड़े हुए थे....!

(लेखक- कबीर कृष्ण)

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