शनिवार, जनवरी 16, 2010

कुछ ऐसा हो जो दिखे

आजकल टीवी की दुनिया में एक भूचाल आया हुआ है. कुछ समाचार चैनल के बड़े पत्रकार त्राहिमाम, त्राहिमाम कर रहे हैं. कोई अपनी खीज फेसबुक पर छोटे-छोटे टॉपिक डाल कर मिटा रहा है तो कुछ बड़े पत्रकार ब्लॉग पर पोस्ट लिखकर अपना दुख जाहिर कर रहे हैं.


लेकिन ये भूचाल, ये छटपटाहट इन पत्रकारों के एक बहुत छोटे से कुनबे में आया है. ऐसा नहीं है कि हर कोई त्रस्त है. कुछ लोग चिल्ला रहे हैं. चीख रहे हैं लेकिन बाकी़ मज़े में हैं.


जो भूचाल आया हुआ है उसका नाम है टीआरपी. जी हां, यह वही साप्ताहिक रिपोर्ट हैं जिसके भरोसे हमारे टीवी वाले ज़िंदा हैं. लेकिन पिछले कुछ दिनों से कुछेक पत्रकार को समाचार पर टीआरपी की मार अखरने लगी है.
आज उन्हें इस बात का अफसोस हो रहा है कि वो समाचार के नाम पर नाटक दिखा रहे हैं और यह पत्रकारिता नहीं है. बिल्कुल सही कह रहे हैं लेकिन एकाएक इस बात का अंदाजा कैसे हुआ इन लोगों को. टीवी से तो समाचार बहुत पहले गायब हो गया था. लेकिन उस वक्त इनलोगों को न तो कोई ऐतराज था और न ही कोई अफसोस.


उस वक्त इन लोगों को टीआरपी से भी कोई एतराज नहीं था. सभी मस्ती में थे. जब एक चैनल ने भूत-पिचास की खबरे दिखानी शुरु की, खबरों में से खबर निकालकर नाटक दिखाना शुरु किया तो उसकी टीआरपी बढ़ गई.
इसके बाद तो सभी चैनल इसी ओर दौड़ने लगे. हर कोई दौड़ा. किसी ने भी रुकने की और सोचने की जरुरत महसूस नहीं की. उस वक्त किसी को भी पत्रकारिता की सुध नहीं थी या कहें तो किसी ने भी इस ओर देखने की जरुरत नहीं समझी.


जब, सब दौडते-दौड़ते थकने लगे, सांस फुलने लगी, चेहरा गंदा होने लगा. आखों से गर्म हवाएं निकलने लगी तो पत्रकारिता और खबर की याद आने लगी.


पिछले दिनों जिन पत्रकारों ने भी ’टीआरपी” को कोसा है, टैम को लेकर पोस्ट या लेख लिखा है वो ऐसे टीवी चैनल के साथ जुड़े हैं जिसकी टीआरपी अच्छी नहीं है. इन बड़े पत्रकारों के चैनल्स ने वो सब कुछ किया जो टीआरपी बटोरने के लिए किया जाना चाहिए लेकिन फिर भी इनकी नैया हिचकोले खा रही है. डगमगा रही है.
इस हालत में इन संपादकों को ऐसा लग रहा होगा कि “न इस पार के रहे न उस पार के’.


तो ख्याल आया कि क्यों न टीआरपी को ही कोसा जाए. ताकि लोगों की नजर में बेहतर पत्रकार की छवी बनी रहे.
जैसा कि ये संपादक अपने लेख में लिख रहे हैं कि टीआरपी से नुकसान हो रहा है और इसे बंद किया जाना चाहिए तो ऐसी ही आवाज उन चैनलों के मालिकों की तरफ से भी आनी चाहिए जो अभी टीआरपी की मलाई खा रहे हैं.


इस बारे में काम करने की जरुरत है. इन लिखाड़ समाचार संपादकों को चाहिए कि वो इस मसले पर अपनी बिरादरी में एक राय बनाएं और कुछ ठोस कदम उठाएं जो फेसबुक, ब्लॉग और अखबार के अलावा उनके चैनलों पर भी दिखे.

3 टिप्‍पणियां:

राजीव कुमार ने कहा…

भई टीआरपी नहीं तो विज्ञापन नहीं और फिर आमदनी नहीं तो गिरती है गाज बॉस पर, यानी चिंता लाजमी है।

Unknown ने कहा…

"कुछ ऐसा हो जो दिखे " वास्तविकता का वो आइना आपने प्रबुद्ध जनों कों दिखाने की कोशिश की है जो लम्बे समय से धूमिल पर चुकी थी ,ये अपना चेहरा स्पष्ट नहीं देख पा रहे थे|आपके आलेख में एक आक्रोश तो है जो बदलाव की तरफ इशारा करता है लेकिन ये एक सवाल भी है की क्या आर्थिक महत्व कों प्रधानता देने वाले ये शाब्दिक शेर पत्रकारिता की वास्तविकता से भी इतीफाक रखते है |
आपका अनुज
गौतम सचदेव

Fauziya Reyaz ने कहा…

bahut sahi kaha....main bilkul sehmat hoon aapse