कल, बिहार में दो-दो परिक्षाओं के परिणाम निकले. पहला अई.अई.टी. जे.ई.ई का और दूसरा मैट्रिक का. पहले वाले रिजल्ट से अपन का कोई भावनात्मक लगाव नहीं है. कभी सपने में भी आई. आई, टी. के बारे में न सोचने वालों की जमात में से रहा हूं. लेकिन शिक्षा की सड़क पे बनाए गए मैट्रिक रुपी बैरियर से तो गुजरना ही पड़ा. इससे बच निकलने का कोई दूसरा रास्ता था ही नहीं. अगर होता तो मैं उसे जरुर अपनाता और फिर बड़ी खुशी-खुशी पापा द्वारा किए गए लत्तम-जुत्तम को सह लेता. ये सौभाग्य प्राप्त नहीं हुआ. मार-पिटाई हुई लेकिन रिजल्ट आने के बाद. लात, थपड़ और घुसों की जमकर बरसात हुई.
मुझे अच्छे से याद है. सुबह के साथ बजे होंगे. मैं कोठरी( घर का बाहर वाला कमरा) में लगे चौकी पर मछरदानी लगा के चैन से सो रहा था. बिल्कुल निफिक्री में. तभी कान में आवाज आई. “अरे….रिजल्ट आ गया तिरहुत प्रमंडल का.” लगा कि सपना देख रहा हूं. मैं बिल्कुल निश्चिंत था कि अगले एक- दो दिन तक तो रिजल्ट नहीं ही आएगा. आज तक नहीं पता चा्ला कि उस बेफिक्री का आधार क्या था.
खैर, मेरे मानने और न मानने से क्या होता है. रिजल्ट का भूत गांव की सड़क पे घुम रहा था. सभी बच्चे अपने-अपने रौल नंबर का मिलान करने के लिए हरी भाई के दरवाजे की तरफ जा रहे थे क्योंकि दो रुपय में आने वाला आज अखबार केवल उन्हीं के यहां आता था. ये सब मैंने देखा नहीं. आधी नींद में रहते हुए महसुस किया था. मैं अपना रिजल्ट जानता था और उसके बाद क्या होने वाला था वो भी जानता था. तभी तो हर रोज यह मनाता था कि रिजल्ट आए ही नहीं. अखबार में देखने का बिल्कुल मन नहीं था. लेकिन अंगना में चुल्हे पर रोटी बनाती मम्मी को और जन-मजूरा की तलाश में पछियारी टोला गए पपा को अपने मन की बात बताने की हिम्मत नहीं थी.
पपा, परीक्षा के फौरन बाद नंबर का हिसाब लेते थे. मैथ में कितना आएगा? फिजिक्स और केमेस्ट्री में क्या मिलेगा? और मैं उन्हें हर विषय में सत्तर से अस्सी नंबर के बीच का आंकड़ा पकड़ा देता था. जबकी मुझे पता होता था कि हर विषय में मेरे अंक चालिस से पच्चास के बीच झुलेंगे. झूठ कहता था उनसे. उस वक्त मुझे इसका कोई अफसोस भी नहीं होता. बल्कि खुशी होती. सोंचता, ’चलो…..बढिया है. इस तरह लात खाने से तो बच गया”
जैसी की मुझे उम्मीद थी. हरी भाई के अखबार ने भी मुझे वही परिणाम दिए. मैं मैट्रिक की इस बैरियर को सेकेंड गेयर से पार कर गया था. मुझे, मेरा रिजल्ट मिल गया था. मैं सतुष्ट था लेकिन घर पे किसी को विश्वास ही नहीं हो रहा था. सबको लग राहा था कि मुझे फर्स्ट क्लास से पास होना चाहिए.
मेरे मैट्रिक का रिजल्ट जब पपा को पता चला तो उनके गुस्से का बम घर में फट पड़ा. इसके बाद जो हुआ वो मैं शुरु में ही बता चुका हूं. बार-बार बताना अच्छा नहीं लगता.
खैर, इस सब में मेरे पापा की ज्यादा गलती नहीं थी. उनकी गलती ये थी कि मारते वक्त वो यह भूल जाते थे कि मैं उन्हीं का बच्चा हूं. मैं पढ़ने में बिल्कुल भुसकौल था. जब मेरे दोस्त –यार परीक्षा की तैयारी कर रहे थे तब मैं आगामी विधानसभा चुनाव के चुनावी माहौल का मजा ले रहा था.क्या करता, सब्जेक्ट की किताबों से ज्यादा मुझे चुनाव प्रचार की गाड़ियां. चुनाव से पहले का हो हल्ला और चुनावी संबंधी बातें अपनी तरफ खिंचती थीं.
कल का दिन, मेरे रिजल्ट वाले काले दिन की याद दिला गया.
3 टिप्पणियां:
अपेक्षाओं का यह भारी बोझ बुलकुल बेतुका लेकिन यथार्थ है!! हर घर की मिलती-जुलती कहानी है!! जिस साल मैंने मैट्रिक की परीक्षा दी थी बस उसी साल यह नया सिस्टम इंट्रोड्यूस हुआ था कि प्रश्न पत्र में ही उत्तर की जगह बनी होती थी यानी उसे लेकर लौटना नहीं होता था. और मैं बहुत खुश रहता था उन दिनों कि घर जाते ही कोई यह नहीं पूछेगा कि इस प्रश्न का क्या उत्तर लिखकर आए हो...
kabhi kabhi parents jangli ban jaate hain...maine apne papa se kabhi judaav nhi mahsoos kar saki iska ek sabse bada reason...
विकास बाबु गाही बगाही कुछ यादें ताज़ा हो गयीं,आखिर बहुत दिनों के बाद आपके आलेख के आर पार जाकर अच्छा लगा।
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