शुक्रवार, अक्तूबर 21, 2011

खोज...


ये आखें, मेरी सांसे-

शहर की भीड़ में,
चौक की चाय दूकान में
गांव की आरमियत में,
खेत-खलिहान में,
मेले  और रेले में,
राजनितिक या सामजिक सेमिनार में,
हर सभा और संगत में,
तुम्हे खोजती हैं.

महसूस तो करता हूं, तुम्हे. लेकिन दिखती नहीं हो, कहीं.
क्यों भला?

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