पिछले दिनों, भारतीय प्रेस परिषद के अध्यक्ष जस्टिस मार्कंडेय काटजू पटना आए. एक कार्यक्रम के दौरान उन्होंने कहा कि बिहार में मीडिया आजाद नहीं है ऐसा उन्होंने सुना है. काटजू साहब ने सुना होगा. लेकिन पटना या बिहार के लोग तो इस खेल को काफी समय से देख रहे हैं. महसूस कर रहे हैं और सबसे बड़ी बात कि अब समझने भी लगे हैं. यह जो समझदारी बन रही है वो किसी काटजू के बयान के बाद नहीं बन रही. भले हीं पटना के कुछ पत्रकार मार्कंडेय काटजू के बयान के बाद जागे होंगे लेकिन राज्य की जनता बहुत पहले से इस खेल को समझ और जान रही है. मुंह पे कोई नहीं बोलता. लेकिन जैसे ही आप आम लोगों की गोल में पत्रकार का चोंगा उतार के बैठेते हैं वैसे ही वास्तविकता से मुलाकात हो जाती है. वास्तविकता का चेहरा बड़ा डरावना है. पत्रकारों के लिए. मीडिया हाउस नहीं.
अब सवाल यह खड़ा होता है कि क्या राज्य के पत्रकार अपनी आजादी चाहते हैं? क्या इनके रीढ की हड्डी सीधी है? क्या ये लोग सीधे खड़े रह सकते हैं? जैसे ही इन सवालों के जवाब मिल जाएंगे वैसे ही बिहार की मीडिया आजाद हो जाएगी. ऐसा मेरा मानना है. इन सवालों के जवाब कोई आयोग या प्रेस परिषद का कोई जांच दल नहीं खोज सकता. इनके उतर तो पटना के उन बड़े पत्रकारों को ही खोजना होगा जो शासन-सत्ता के सबसे करीब रहते हैं. बात - बात पर वे शासन की हां में हां मिलाते रहते हैं. दांते निपोरते रहते हैं .
मैं पिछले एक साल से पटना में हूं. सक्रिय पत्रकारिता में. मैंने इस एक साल में बहुत करीब से देखा है, पटना के पत्रकारों को और इनके द्वारा होने वाली बेवजह की चटुकारिता को.इसमे कोई शक नहीं कि कुछ अच्छे और अपने शर्तों पे खबर लिखने और करने वाले पत्रकार भी यहां हैं. लेकिन ऐसे लोग कम हैं. ज्यादातर लोग तो वही हैं जो मुख्यमंत्री से सवाल करने की जगह बधाई देना पंसंद करते हैं.
मुख्यमंत्री आए दिन प्रेस वार्ता बुलाते रहते हैं. इस तरह के प्रेस बैठक में हर हाउस के बड़े-बड़े पत्रकार पहुँचते हैं. कई बार तो यह भी देखा गया कि एक हाउस से तीन-तीन लोग आए हुए हैं. जितने बड़े पत्रकार आते हैं उससे तो होना ये चाहिए था कि एक -से -एक सवाल आते पत्रकारों की तरफ से. लेकिन होता इसका उल्टा है. ज्यादातर बड़े पत्रकार मिल जाते हैं. सवाल की जगह हंसी-मजाक चलने लगता है. पत्रकारों की तरफ से मुख्यमंत्री को अलग-अलग मौके की बधाई दी जाने लगती है. इस सब के बीच अगर किसी नए लड़के ने माईक पा लिया और कोई चुभता हुआ सवाल उछाल दिया तो मुख्यमंत्री के कुछ कहने से पहले ही सवाल कर्ता, अनुभव वाले बड़े पत्रकारों की हंसी का शिकार हो जाता है और खारिज कर दिया जाता है. खारिज करने के इस रिवाज को बदलना होगा, पटना के पत्रकारों को. अगर आपको सवाल नहीं पूछने या आपके हाउस ने सवाल पूछने से मना किया है तो आप चुप रहिए. जो पूछ रहे हैं उन्हें मौन सहमति दीजिए. न कि उनका मजाक उड़ा के सत्ता के करीब जाने की कोशिश करिए.
अगर हाउस का दबाब हो और पत्रकार न झुकना चाहें तो इसके हजार रास्ते हो सकते हैं. नौकरी करते हुए. खबर लिखते हुए और प्रेस वार्ता में जाते हुए भी विरोध जताने का. प्रेस वार्ता में जाकर चुपचाप मुख्यमंत्री को सुन के भी लौटा जा सकता है क्योंकि खबर तो उनके संबोधन से ही बननी है. कई रास्ते हैं. विरोध के. लेकिन इसके पत्रकारों को केवल गप्पबाजी करने के अलावा अपने व्यवहार में बदलाव लाना होगा. सत्ता के करीब जाने के मोह से छुटकारा पाना होगा.
3 टिप्पणियां:
बहुत सुन्दर aur सत्य कहा है आपने. आत्मनिर्भरता ही स्वतंत्रता की or जाने का रास्ता है,
पहले पत्रकारों को खुद के रवैए में बदलाव लाना होगा तभी कुछ शंभव है
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