रविवार, जनवरी 15, 2012

एक बच्ची की जिद-जुनून से बदली तसवीर-तकदीर


दस साल पहले की बच्ची अनिता आज अपने गांव -जवार के लिए प्रेरणा बन चुकी है.

बिहार में मुजफ्फरपुर जिले के एक गांव पटियासा जलाल की रहने वाली है अनिता. कुशवाहा बहुल गांव है यह. समाजशास्त्र से एमए की पढ़ाई पूरी कर चुकी अनिता से मिलने पर, बोलने-बतियाने पर किसी सामान्य लड़की की तरह ही दिखती-लगती हैं. लेकिन बात उद्यमिता पर आती है तो किसी सधी हुई उद्यमी की तरह गुणा-गणित से लेकर अन्य तरीकों को ऐसे समझाती हैं, जैसे बचपन से अनिता को किसी संस्थान में इसकी विधिवत ट्रेनिंग दी गयी हो. अनिता की बातों में इरादों के प्रति दृढ़ता का भाव, अदम्य साहस और मुसीबतों-चुनौतियों से लड़ने का माद्दा उन्हें सामान्य लड़कियों से अलग कतार में खड़ा कर देता है.

बचपन से अनिता को उद्यमिता की ट्रेनिंग तो कहीं नहीं मिली लेकिन खुद के बुते मात्र बारह साल की उम्र में ही अनिता ने खुद के लिए रास्ता खोजा, जो आज उनके गांव ही नहीं पूरे इलाके के लिए प्रेरणा का स्रोत बन संभावनाओं के नये द्वार को खोल रहा है. अनिता का वह फैसला था मधुमखी पालन का. आज अनिता खुद लगभग शहद के कारोबार से साल में तीन लाख रुपये की कमाई कर रही है. अनिता की बनायी लीक पर चल पूरा गांव-जवार भी हजार से लाख का आंकड़ा छू रहा है. अनिता पर यूनिसेफ वृत्तचित्र बना चुकी है, नाम दूर-देस तक फैल रहा है लेकिन एक नन्हीं बच्ची के लिए यह सब इतना आसान नहीं था.

मधुमक्खियों के नाम से ही डरने की उम्र में अनिता उनके साथ रचने-बसने-खेलने का फैसला लीं थी. उस समाज में, जहां मैट्रिक के बाद लड़कियों के लिए संभावनाओं के सारे द्वार ससुराल में खोलने की कोशिश शुरू कर दी जाती है. अनिता उन दिनों को याद करते हुए बताती हैं- तब मैं नौंवी क्लास में पढ़ती थी. मधुमक्खी पालन का फैसला ली तो अचानक ही मानो विरोध का पहाड़ टूट पड़ा. मेरे फैसले का घर से बाहर तक खूब विरोध हुआ. पिता एक खेतिहर मजदूर थे. घर की स्थिति भी ठीक नहीं थी. फैसले का विरोध करते हुए किसान पिता ने दो टूक शब्दों में कह दिया था- यह कतई संभव नहीं, नामुमकिन है, क्योंकि यह काम लड़कियों का नहीं. अनिता अपने पिता से जुबान तो नहीं लड़ा सकी लेकिन हार भी नहीं मानी. पिता के प्रतिकूल फैसले के बाद मां को अपने पक्ष में कियामां के सहयोग से अनिता ने चार हजार रुपय में मधुमखी के दो बक्से खरीद लिए.
फैमली फोटो: अनिता के साथ उनका समूचा परिवार आज मुसकुरा रहा है.
अनिता खुल के हंसते हुए बताती हैं- ““...तब मैं छोटी थी. मेरे घर के सामने जो लिची बगान है (हांथ से घर के सामने के लिची बगान की तरफ इशारा करती हैं.) इसमे लिची के सीजन में बाहर से बक्से आते थे. मुझे याद है कि शुरू के दो चार दिन तो मैं वहां इस लालच के साथ जाती थी कि ताजे शहद चखने को मिल जाएंगे. लेकिन फिर पता नहीं कब मुझे उन्हें काम करते देखना अच्छा लगने लगा. उनका बक्से की सफाई करना. हनी चेंबर (बक्से में दो अलग-अलग चेंबर होते हैं जिसमें से एक को हनी चेंबर कहा जाता है क्योंकि इसी चेंबर में मधुमखियों द्वारा जमा किया गया शहद रहता है.) से शहद निकालना. बिमार मक्खियों को दवा देना आदि-आदि. धीरे-धीरे मुझे इन कामों को देखने में मजा आने लगा. करीब-करीब दस दिन लगातार घंटो उनके साथ बैठने के बाद मुझे लगा कि अरे...यह काम तो बहुत आसान है. बस फिर क्या था. शुरुआत हो गई

बचपने में अपने घर के सामने मधुमक्खी पालन देखने जाना, उसके साथ खेलना, काम करना ही अनिता के लिए मधुमक्खी पालन और उद्यमिता की ट्रेनिंग भी होती रही. काम शुरू करने के करीब-करीब सालभर बाद अनिता ने राजेन्द्र कृषि विश्वविद्यालय, पूसा से छह दिवसीय प्रशिक्षण कोर्स में हिस्सा लिया. अनिता ने दो बक्सों और चार हजार की पूंजी के साथ जो शुरुआत की थी उसके अच्छे नतीजे आए. एक सीजन जो की छह से सात महीने का होता है. इसमें अनिता को छह हजार का मुनाफा हुआ. फायदा हुआ तो अनिता ने एक बार फिर अपने किसान पिता को समझाया. अनिता कहती हैं, जब फायदा हुआ तो पिताजी को भी बातें समझ में गयीं और वे मना करने की बजाय खुद भी हमारे साथ हाथ बटाने लगे.

पिता के सहयोग से अनिता का मनोबल बढ़ा. घर से अनिता का विरोध बंद हुआ तो गांव-समाज ने दुत्कारना और तरह-तरह की बातें शुरू की. अनिता ने परवाह नहीं की. अगले सीजन में कुल सौ बक्सों के साथ काम करना शुरू की. अनिता बताती हैं,‘‘ एक दिन जब मैं साइकिल से कॉलेज जा रही थी तो पड़ोस की बसंती चाची ने रोककर जो समझाया  वो आज भी नहीं भूल पाती. चाची ने मुझसे कहा कि यह काम मर्दों का है. एक लड़की हो कर मुझे इस काम में टांग नहीं फंसाना चाहिए. इससे गांव की हंसाई होगी और दुसरी लड़कियों के शादी-ब्याह में भी दिक्कत होगी. तब से लेकर आज तक बहुत से लोगों ने बहुत कुछ कहा. मुझसे, मेरे घरवालों से लेकिन मैंने किसी को कभी कुछ नहीं कहा. क्योंकि मुझे कुछ कहने के बजाय काम करने में मजा आता था और आज भी आता है.”

लगाव: अनिता मधुमंखियों से एक जुड़ाव महसूस करती हैं. 
अनिता की मां रेखा देवी कहती हैं कि यह सब अनिता ने किया है, हमने तो सिर्फ अपना फर्ज निभाकर उसका नैतिक समर्थन किया. अनिता की मां बताती हैं, देखते ही देखते बहुत कुछ बदल गया है हमारे घर-परिवार और समाज में भीवह कहती हैं, जिस पक्के मकाने के नीचे आप और हम बैठे हैं. वहां तीन-चार साल पहले तक एक  छोटी सी झोपड़ी हुआ करती थी. जिसमें दाखिल होने के लिए कमर तक झुक जाना पड़ता था. और भी बहुत कुछ बदला. आज मेरे दोनों बेटे पढ़ रहे हैं. हमलोग ठीकठाक खा-पी रहे हैं. पहले तो कई बार खाने की भी दिक्कत हो जाती थी.

यह तो अनिता के घरवालों की बात हुई. घर-परिवार से बाहर गांव और जवार में भी ऐसे परिवर्तन अनिता की बदौलत हो रहे हैं. अनिता ने गांव की अपनी चाची, भाभी और बहनों को भी इस तरक्की में शामिल करने के बारे में सोंचा. गांव की महिलाओं को इकठ्ठा कर के उसने उन्हें समझाया कि वो सभी भी मधुमक्खीं पालन कर सकती हैं. और अपने परिवार को आर्थिक मदद  पहूंचा सकती हैं. सबसे पहले अनिता के कहने पर उसकी उसी चाची ने काम शुरु किया जिसने कभी उसे कहा था कि यह काम लड़कों का है और लड़की होकर उसे इस काम में टांग नहीं फंसाना चाहिए. गांव की बसंती देवी कहती हैं कि उन्होंने शुरू-शुरू में अनिता को मना जरुर किया था लेकिन आज उन्हें इस बात का गर्व है कि अनिता इस गांव की बेटी है. बसंती के साथ उनके तीनों बेटे भी अब मधुमक्खी पालन का ही काम करते हैं. अपने परिवार में आए बदलाब के बारे में बताते हुए बसंती कहती हैं, “ तीन साल से इस व्यवसाय में हैं. आज मेरे तीनों बेटे के पास अस्सी-अस्सी बक्से हैं. सब अपना-अपना काम कर रहे हैं. लेकिन तीनों बेटो ने मिलकर घर बना लिया है. शरमाते हुए कहतीं है, “रंगीन टीवीओ लग गई (गया) है.”

आज से एक दशक पहले अनिता ने अनजाने में ही जिस बदलाव की नींव रखी थी उसका ही यह कमाल है कि आज अनिता द्वारा बनाए गए सेल्फ हेल्प ग्रुप में दो सौ महिलाएं हैं. गांव के लगभग हर घर में मधुमक्खी पालन हो रहा है. कभी खेती-पथारी में मजदूरी और दिहाड़ी पर मजदूरी करने वाले मर्द व्यवसायी हो गए हैं. देहरी से बाहर भी कदम रखने में हिचकनेवाली और बंदिशों से मजबूर महिलाएं कुरुक्षेत्र (हरियाणा) और लुधियाना (पंजाब) से घुम कर और मधुमक्खी पालन के नए-नए तरीके सीख रही हैं और गांव में प्रयोग कर रही हैं. शहद की बड़ी कारोबारी कंपनियों के एजेंट अब अनिता के गांव तक पहुंचते हैं.

यह सब तो तत्काल प्रभाव के नमूने हैं. कुछ बदलाव ऐसे भी हुए हैं, जिसका असर बाद के दिनों में दिखेगा. 2002 से पहले तक जिस गांव में लड़कियों को ज्यादा पढ़ाना बेकार समझा जाता था. आज स्थितियां ठीक उलट गयी हैं. कभी अनिता के मधुमखी पालन करने के फैसले पर विरोध दर्ज करानेवाले सत्यनारायण कुशवाहा कहते हैं. “ सब बात छोडि़ए. हम पुराने लोग हैं सो बुरा लगा बोल दिया लेकिन लड़कया ने जौन किया वो बिना पढ़े-लिखे नहीं हो सकता था. इहेलिए अब लड़कियों को भी बहुते पढ़ाना-लिखाना है. जौनो काम करना चाहेंगी उसे करने देना चाहिए. समय बदल रहा है.”

भी अब समय की बदलाव को भांप रहे हैं और यह सब संभव हुआ इस नौवी की छात्रा अनिता के उस प्रयास की वजह से जिसे उसने चुप-चाप आकार दिया. बगैर कुछ बोलेबगैर किसी को कुछ समझाए. अपने पूरे गांव को यह समझा दिया कि हवा बदल रही है.

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