सोमवार, मई 26, 2014

कहानियां जिंदा हैं.


हम कहानियां हैं. जितने लोग उतनी कहानियां. उतने चित्र लेकिन तुम्हे दिखे तब न. तुम तो एक ही कहानी को पूरा कहने में लगे हो. चलो, कह लो अपनी चमक-दमक वाली कहानी. और जब फुर्सत मिले तभी देख लेना हमारी तरफ. हम और हमारी कहानियां तब भी तुम्हारे देखे जाने और तुम्हारे द्वारा कहे जाने का इंतज़ार करेंगी. हम कई दशकों से इंतज़ार कर रहे हैं. कहे जाने का. बताए जाने का. दिखाए जाने का.

अगर तुम ईमानदार कोशिश करो. दिन-रात भागते रहो. सुबह-शाम दिखाते रहो तब भी हमारी कहानियां खत्म नहीं होंगी. क्योंकि सालों से इनसान कहानियों को जी रहा है. मुंशी प्रेमचंद के समय में भी और आज के समय में भी. असल में हम जिंदगी जीते-जीते कहानियां जी रहे हैं. हम कहानियों की रोटी खाते हैं. कहानियों के बिछौने पर सोते हैं और यही खरीदते-पकाते भी हैं.

लेकिन तुम अपनी आसानी और सहजता का ख्याल करते हुए कुछ कहानियों को कहे जाने और लिखे जाने के लिए चुन लेते हो. तुम वही कहानियां चुनते हो. खोजते हो जिन्हें पढ़े जाने, सुने जाने या देखे जाने की उम्मीद है. तुम हर कहानी क्यों लिखने लगे? क्यों दिखाने लगे? सही बात भी है. व्यर्थ की उर्जा क्यों लगाओ तुम. तुम्हारे लिए तो वही कहानी, कहानी है जिन्हें देखा या सुना जाएगा. और इसी आधार पर तुम हमारी कई कहानियों में से कुछेक का चयन कर लेते हो. और इस चयन पर खुश हो लेते हो कि तुमने कहानी लिखने और कहने की जिम्मेदारी उठाई है. कभी पूछना अपने आप से. रात के समय में. जब सब सो रहे हों और हर तरफ अंधेरे के साथ शांति हो. यह जिम्मेदारी तुम्हे किसी ने दी या तुमने अपने भले के लिए खुद ब खुद ओढ़ ली.

खैर, रहने दो. कहां कह पाओगे तुम या मैं. सारी की सारी कहानियां. शायद यही नियती है कि कुछ कहानियां केवल जीती हैं. पैदा होती हैं. बढ़ती हैं. कमाती हैं और कमाते-कमाते खत्म हो जाती हैं. इन कहानियों को इसी पर गर्व है कि वो जिंदा हैं. जिंदा कहानियां हैं. वो हर तरफ दिखती हैं. हर जगह दिखती हैं. चलिए, आज से हम और आप मिलकर कहानी देखेंगे. सुनेंगे लेकिन उन्हें लिखेंगे नहीं. उन्हें जिंदा रहने देंगे. लिखते ही कहानियां मुर्दा होकर दफ्न हो जाती हैं.

शुक्रवार, अगस्त 02, 2013

जेएनयू को पचाइए...आपकी सेहत के लिए अच्छा होगा!

जेएनयू से कोई सीधा संबंध नहीं रहा है. हां, कुछ साल पहले तक यह जरुर सोचता था कि इस महान कहे और माने जाने वाले कैंपस से कोई न कोई एक कोर्स जरुर करूंगा. लेकिन अब यह ख्याल भी त्याग चुका हूं. लेकिन पिछले दो-तीन साल से मुनिरका में टिका हूं तो इसके पीछे एक लालच यह है कि जेएनयू बगल में है. इस जगह को हर कोई नहीं समझ सकता. हर कोई जी नहीं सकता. असल में दोष हमारा नहीं है. हमारे आसपास जो कुछ भी है वो सबकुछ इतना दूषित हो चुका है कि हम साफ-सुथरी जगह को पचा नहीं पा रहे. हमे लगने लगता है कि असली प्रदूषण तो यहीं है. ऐसा ही कुछ-कुछ हो रहा है, जेएनयू के साथ!

यहां एक कहानी सुनाने के लिए रुकता हूं. फिर मुद्दे पर बात आगे बढ़ेगी.  कहानी इस तरह से है-शहर में रहने वाला एक परिवार वर्षों से एक ग्वाले से दूग्ध ले रहा था. ग्वाला दूग्ध में पानी मिलाकर देता था. परिवार को पानी वाले दूग्ध की आदत पड़ गई और वो इसी में मस्त थे. खुशी-खुशी खाते-पिते थे, पानी वाला दूग्ध. हुआ यह कि बीच में ग्वाले को लंबे समय के लिए अपने गांव जाना पड़ा. तब परिवार ने दूसरे ग्वाले से दूग्ध  लगवा लिया. उस ग्वाले ने परिवार को दूग्ध देना शुरु किया. परिवार के हर सद्स्य की तबीयत बिगड़ गई. किसी को उलटी तो किसी को दस्त लगने लगा. दो-एक सदस्यों को तो कई सांझ भुख ही नहीं लगी. सब परेशान, हैरान. ध्यान देने पर सबने पाया कि दुग्ध कुछ ज्यादा ही गाढ़ा आ रहा है और इसी वजह से सबको दिक्कत हो रही है. परिवार के मुखिया ने अगले दिन सुबह-सुबह ग्वाले को दवोचा. कहा-साले असली दुग्ध पिलाने के नाम पर दुग्ध में युरिया मिला रहे हो. हमसब की तबीयत खराब हो रही है. तुम्हे पुलिस में दे दूंगा. ग्वाले को मामला समझते देर न लगी. उसने कहा-मालिक माफ कर दें. कल से एकदम सही दुग्ध देंगे. फिर अगली सुबह से दुसरा वाला ग्वाला भी दुग्ध में पानी मिलाकर देने लगा. और इसके बाद परिवार की शिकायत दूर हो गई. सबकी तबीयत ठीक रहने लगी.

तो मुझे लगता है कि जैसे उस परिवार को वर्षों से पानी वाले दुग्ध खाने और पीने की आदत पड़ गई थी और असली दुग्ध से उन्हें परेशानी होने लगी थी ठीक उसी तरह ही हमे ऐसे कैंपसों की आदत पड़ गई है जहां आए दिन कोई न कोई ड्रेस कोड, आने-जाने का समय या ऐसे ही दुसरे-तीसरे फरमान जारी होते रहते हैं. और हम इसी वजह से जेएनयू को पचा नहीं पा रहे हैं.

एक सिरफिरे लड़के ने (जो कि इस कैंपस का छात्र भी था ) ने एक लड़की पर हमला किया, उसे जान से मारने की कोशिश की और फिर खुद को भी खत्म कर लिया . इस घटना के बाद हर कोई यही कहता नजर आ रहा है कि जेएनयू में जो थोड़ी-बहुत आजादी है उसकी वजह से यह हुआ.

इस कैंपस में सुरक्षा की कमी है. यहां लड़के-लड़कियों के आने-जाने और देर रात तक पूरे कैंपस में कहीं भी घुमने-टहलने पर कोई रोका-टोकी नहीं है इसलिए ऐसा हुआ. ऐसा किसलिए हुआ इसकी असली वजह कहीं और है लेकिन लोगों के निशाने पर जेएनयू कैंपस है. ऐसे कितने कॉलेज और कैंपस हैं जहां पर तरह-तरह के रोक हैं. जैसे रात में इतने बजे के बाद नहीं आना है.

लड़के और लड़कियों के हॉटल के बीच बड़ी सी दिवार या दोनों के बीच बहुत अधिक दूरी. बैंग्लोर में एक ऐसा इंजिनियरिंग कॉलेज भी है जहां कैंपस में लड़के और लड़कियों को साथ देखने पर हजार रुपये का फाईन है. लेकिन पिछले दिनों इसी कॉलेज में एक लड़के ने प्रेम संबंध में नाकामयाबी की वजह से खुद को पंखे से झुला लिया. अब कोई बताए? और ऐसा यह कोई अकेला कैंपस नहीं है.

बहुत से ऐसे कैंपस हैं जिंहोंने अपने यहां हर तरह के रोक लगाए हुए हैं लेकिन फिर भी उस कैंपस में भी ऐसी दुखद घटनाएं घटती रहती हैं. हमे इस तरह की हर घटना के पीछे की असल वजह को समझने की कोशिश करनी होगी. और इस तरह की हर घटना की जड़ को खोजकर उसमे मट्ठा डालने का किया जाना चाहिए और फिलहाल हमसब ऐसी हर घटना के बाद इस काम के अलावे सबकुछ करते हैं. 

बुधवार, जुलाई 10, 2013

पुल तले पाठशाला

दिल्ली में मेट्रो ब्रिज तले चल रहा एक अनोखा स्कूल गरीब परिवारों के कई बच्चों की उम्मीदों को पंख दे रहा है. 

मेट्रो के पुल के नीचे दुकानें सजना तो दिल्ली में आम है, लेकिन उसके तले कोई स्कूल चलता दिखे तो बात खास हो जाती है. दिल्ली मेट्रो के यमुना बैंक स्टेशन के पास ऐसी ही एक अनूठी और प्रेरणादायी पाठशाला है. मेट्रो ब्रिज इसे धूप और बारिश से बचाने वाली छत है.

ब्लैकबोर्ड के लिए पुल की दीवार का एक हिस्सा काले रंग से रंग दिया गया है. बच्चों के बैठने के लिए कुछेक गत्ते और चटाइयां हैं. सप्ताह में पांच दिन और रोज दो घंटे चलने वाला यह स्कूल आस-पास रहने वाले मजदूरों, रिक्शाचालकों और उन जैसे तमाम लोगों की उम्मीद है जिनके बच्चे बस्ते में अपने सपने रखकर यहां आते हैं.
हमें कई बच्चे मिलते हैं जिनका जुनून और आत्मविश्वास किसी बड़े स्कूल में पढ़ने वाले बच्चों जैसा दिखता है. 

करीब 10 साल का प्रवेश कहता है, ‘बड़ा होकर ट्रेन चलाऊंगा.’ स्कूल की शुरुआत से ही यहां आ रहा प्रवेश बताता है, ‘मेरा स्कूल सबसे अच्छा है. मास्टर तो अच्छे हैं ही, स्कूल भी ऐसा है जहां कोई बंधन नहीं. खुला-खुला.’ कई और बच्चे भी मिलते हैं जिन्हें अपना स्कूल बहुत प्यारा लगता है. सबको यह भी पता है कि पढ़-लिखकर उन्हें क्या बनना है.

उम्मीद और हौसले की इस पाठशाला की शुरुआत कुछ साल पहले राजेश कुमार शर्मा ने की थी. अलीगढ़ से ताल्लुक रखने वाले 40 साल के शर्मा 20 साल पहले बीएससी की पढ़ाई बीच में ही छोड़ दिल्ली आ गए थे. आ क्या गए थे, मजबूरी में आना पड़ा था. वे बताते हैं, ‘मैं पढ़ने में अच्छा था, लेकिन परिवार बहुत गरीब था इसलिए पढ़ाई छोड़कर दिल्ली आ गया.
रोजी-रोटी चलती रहे इसलिए मैंने किराने की एक दुकान खोल ली जिससे आज भी परिवार चलता है. जब अपने पैर जम गए, दो वक्त की रोटी का जुगाड़ हो गया तब मैंने सोचा कि अब कुछ ऐसे बच्चों को पढ़ाया जाए जिनके मां-बाप गरीब हैं  और जिनके पास इतने संसाधन नहीं है कि वे बच्चों को स्कूल भेज सकें या पढ़ा सकें. यह इलाका मेरे कमरे के पास है और यहां के लोग भी गरीब ही हैं सो मैंने यहीं से शुरुआत की. यह स्कूल तो दो साल से है लेकिन मैं तो पिछले चार-पांच साल से बच्चों को पढ़ा रहा हूं.’

स्कूल की शुरुआत सिर्फ तीन बच्चों से हुई थी. लेकिन देखते ही देखते बच्चों की संख्या140 तक पहुंच गई. राजेश घबराने लगे क्योंकि अकेले इतने बच्चों को संभालना उनके लिए मुश्किल हो रहा था. उन्होंने बच्चों के मां-बाप से बातचीत करके इस बात के लिए तैयार किया कि जिन बच्चों की उम्र पांच साल से ज्यादा हो चुकी है उन्हें सरकारी स्कूल में भेजा जाए. इस तरह 140 में से 60 बच्चे सरकारी स्कूल में दाखिला पा गए.

साल भर पहले स्कूल को एक और शिक्षक मिला. ये थे बिहार के नालंदा से दिल्ली आए लक्ष्मी चंद्रा. लक्ष्मी विज्ञान में स्नातकोत्तर हैं और दिल्ली में अपने परिवार के साथ रहते हैं. रोजी-रोटी के लिए वे प्राइवेट ट्यूशन लेते हैं. वे बताते हैं, ‘एक दिन  ट्यूशन के लिए जाते वक्त मैंने देखा कि पुल के नीचे बच्चे बैठे हैं और एक आदमी उन्हें पढ़ा रहा है. उस दिन तो मैं निकल गया क्योंकि मेरी क्लास का समय हो रहा था. अगली सुबह उत्सुकता के साथ जब मैं यहां पहुंचा तो पता चला कि राजेश गरीब बच्चों को फ्री में पढ़ाते हैं. मुझे लगा कि  इस नेक काम में इनका साथ देना चाहिए. बस तभी से मैं स्कूल से जुड़ गया.’

आगे की योजनाओं के बारे में पूछने पर राजेश कहते हैं, ‘देखिए, हमें यह मुगालता नहीं है कि हम कोई बहुत बड़ा काम कर रहे हैं. इस देश में ऐसे बच्चों की संख्या बहुत है जो पढ़-लिख नहीं पाते तो ऐसी हालत में अगर हम कुछेक बच्चों को  थोड़ा-बहुत पढ़ा देते हैं तो इसमें कोई बड़ी बात नहीं है. दूसरी बात यह भी है कि हमारी सीमा भी यहीं तक है. लाख चाहकर भी हम दोनों इस देश के हर बच्चे को नहीं पढ़ा-लिखा सकते. रही बात भविष्य की तो जब तक बन सकेगा इसी तरह से पढ़ाते-लिखाते रहेंगे और एक समय के बाद इन्हें सरकारी स्कूल में भेजते रहेंगे. क्योंकि असल चीज जो है डिग्री, वह तो इन्हें वहीं से मिलेगी.’


इस अनूठे स्कूल की तरफ कई गैरसरकारी संगठनों ने भी हाथ बढ़ाया. लेकिन राजेश और लक्ष्मी चंद्रा कहते हैं कि वे अपने  मिशन को कमाई का जरिया नहीं बनाना चाहते. राजेश कहते हैं, ‘देखिए, ऐसा तो है नहीं कि हमारे परिवार का पेट नहीं पल रहा है.

अपने लिए कमाई का जरिया है ही हमारे पास.’ इतना कहकर राजेश चुप हो जाते हैं और अपने छात्रों को कुछ बताने-समझाने में लग जाते हैं. स्कूल के भविष्य और इससे जुड़ी मुश्किलों से जुड़े सवालों का जवाब देते वक्त राजेश के चेहरे पर आत्मविश्वास की झलक दिखती है. मानो कह रहे हों कि अगर भविष्य और मुश्किलों के बारे में सोचा होता तो मेट्रो के पुल तले यह पाठशाला शुरू ही नहीं हो पाती. 

गुरुवार, फ़रवरी 21, 2013

कुंभ में पुलिस अलग नजर आती है

इलाहाबाद में संगम के किनारे 'कुंभ' सजा है. बांस-बल्लियों के सहारे बहसा एक पूरा शहर. एक बस्ती. एक अलग समाज...! एक महीने के लिए बसे इस समाज को भी सुरक्षा भी चाहिए ही. सुरक्षा के लिए उत्तर प्रदेश पुलिस, उतराखांड पुलिस से लेकर रैपी डेक्शन फोर्स के करीब-करीब लाखों जवान दिन रात, चैबिसों घंटे खड़े रहते हैं. बल्लियों के सहारे ही  थाने बने हैं.पुलिस वालों के आसियाने खड़े हैं.

इस सब के अलावा जो एक बात चैंकाती है वो है...मेला पुलिस का नजरिया. बात करने का ढंग और आम लोगों से उनकी सहजता. एक पल को तो विश्वास ही नहीं होता कि ये पुलिस हमारे देश की है! असल में जितनी सहजता से मेला पुलिस के जवानों को श्रद्धालुओं से बातचीत करते देखा वैसे मैंने आजतक नहीं देखा था. मैं दूसरे शाही स्नान से एक दिन पहले की शाम को संगम किनारे था. श्रद्धालुओं की भीड़ लगातार गंगा में डुबकी लगा रही थी. सांझ का समय हो रहा था. सूरज अस्त हो रहा था. लाईंटे जल गईं थीं.

पुलिस को माईक से यह निर्देश मिल रहा था कि शाम हो जाने की वजह से अब श्रद्धालुओं को गंगा में स्नान करने से रोकें. इसके बाद मैंने जो देखा उसपर सहज विश्वास करना मुश्किल था. मेरी बगल में एक परिवार नहाने के लिए कपड़े उतार रहा था. एसपी रैंक का एक पुलिस जवान परिवार के पास आता है. हांथ जोड़कर कहता है-माता जी...शाम हो गया है. अभी गंगा में नहाने न जाइए. कल सुबह नहा लीजिएगा.

इतनी विनम्रता से पुलिस के किसी आफिस्र को...आम लोगों से बात करते हुए मैंने अपने अबतक के उमर में तो नहीं ही देखा था. मुझे एक सुखद आश्चर्य हुआ. मैंने उस पुलिस वाले के चेहरे को और उनके कंधे पर लगे बैच को गौर से देखा....यह आफिसर उपी पुलिस का ही था. संगम से लौटते हुए मैंने देखा कि चितकबरा वर्दी पहने जवान एक बुढ़ी महिला को हांथ पकड़ा के सड़क के किनारे ले जा रहा था. बगैर झलाए...बिना चिल्लाए.

मौनी अमावस्या वाले दिन करीब-करीब तीन करोड़ लोग...संगम परिसर में पहुंचे थे. इतनी संख्या को हैंडल करना...उन्हें बगैर डराए...प्रेम से...सम्मान से...मेला पुलिस की कर सकती थी.
यही कारण है कि जब इतनी बड़ी संख्या का एक छोटा सा हिस्सा, शाम के समय. इलाहाबाद स्टेशन पर पहुंचती है तो एक भगदड़ मच जाती है और  36 लोगों की जान चली जाती है.

रविवार, नवंबर 11, 2012

'हिंदी का सबसे बड़ा आलोचक सबसे बड़ा जोकर बन चुका है.'


अनिल यादव की किताब
अनिल यादव पेशे से पत्रकार हैं और प्रवृत्ति से घुमक्कड़ लेखक. उनकी हालिया प्रकाशित किताब ‘वह भी कोई देस है महाराज’ पूर्वोत्तर पर केंद्रित एक यात्रा वृत्तांत है. इसमें देश के ऐसे भूभाग की बातें और समस्याएं हैं जो हिंदी पट्टी और देश के दूसरे हिस्सों के लिए अब भी अबूझ पहेली की तरह हैं. किताब के जरिए अनिल अपने साथ पाठकों को भी सुदूर पूर्वोत्तर की सैर कराते हैं. किताब के बारे में उनसे एक बातचीत.

आम तौर पर कहा जाता है कि भारत सरकार और पूर्वोत्तर के बीच संवादहीनता है. क्या संवादहीनता केवल सरकारी स्तर पर है? क्या साहित्य और पत्रकारिता के स्तर पर कोई संवादहीनता नहीं है? 
पूर्वोत्तर से जो भी संवाद है वह सरकारी ही है या फिर व्यापारियों ने बना रखा है. अगर वहां सरकार की भेजी फौजें, किसिम-किसिम के दफ्तर, आयोग और हजारों कर्मचारी न होते तो यह अलगाव और भी गहरा होता. लेकिन यह सिलसिला बहुत फूहड़ है क्योंकि वहां उग्रवाद और आदिवासियों की अन्य जटिल समस्याओं को हल करने का जिम्मा जिन बड़े अफसरों पर है वे पूर्वोत्तर को पिकनिक की जगह समझते हैं जहां जंगली रहते हैं जो उनके स्वागत में नाचने चले आते हैं. वहां के बहुत-से लोगों की तरह अरुणाचल के मुख्यमंत्री गेगांग अपांग की बहू आद्री ने भी एक मुलाकात में व्यंग्य करते हुए मुझसे पूछा था, ‘आप क्या समझते थे मैं घर में नहीं पेड़ पर बैठी मिलूंगी.’ जबकि वह औरत दिल्ली में पढ़ाई और उत्तर प्रदेश में भंगियों पर रिसर्च करके गई थी. दिल्ली के अफसरों ने वहां दलालों, ठेकेदारों और भ्रष्ट अफसरों का एक विशाल तंत्र विकसित किया है जो आदिवासियों को उन्हीं की नजर से देखता है. सरकार की नजर में वहां की हर समस्या का समाधान या तो दमन है या पैसे बांटना है. माफ कीजिएगा, मीडिया और साहित्य से आप कुछ ज्यादा ही उम्मीद लगाए बैठे हैं जबकि दोनों ही हाइली लोकलाइज्ड धंधे हैं. उन्हें पूर्वोत्तर या किसी और जगह के आम लोगों से क्या लेना-देना. मीडिया ने पूर्वोत्तर को सदा से ब्लैक आउट कर रखा है. कोकराझार और दूसरे बोडो इलाकों में आदिवासियों और मैमनसिंघिया मुसलमानों के बीच मारकाट को जरा तवज्जो इसलिए मिल गई कि उसकी प्रतिक्रिया मुंबई और लखनऊ जैसी रेवेन्यू देने वाली जगहों में होने लगी थी. और रही बात हिंदी साहित्य की तो इन दिनों उसकी सबसे बड़ी समस्या पुरस्कार, अफसर लेखक का ट्रांसफर, बच्चे का इम्तिहान और मिडिल क्लास का सड़ियल प्रेम है. हरिश्चंद्र चंदोला की नागा कथा के कुछ अंशों के कई साल पहले हंस में छपने को छोड़ दें तो लोगों की समस्याओं पर प्रामाणिक ढंग से किसी साहित्यिक पत्रिका में कुछ नहीं छपा है. अब हिंदी का लेखक अपने चरित्रों के भी पास नहीं जाता. लेखक चाहता है कि पात्र खुद आएं और उसके पैरों पर गिर कर अपना हाल बता जाएं.   

पूर्वोत्तर से हिंदीभाषियों  के खिलाफ हिंसा की खबरें आती रहती हैं. आखिर इस इलाके में हिंदीभाषियों के लिए इतनी नफरत  क्यों है?
वहां अलगाव की राजनीति करने वाले लोग चुनावी फायदे के लिए हिंदी बोलने वाले आदमी को इंडिया के प्रतिनिधि के रूप में रंग देते हैं और वह अंधी हिंसा का शिकार बन जाता है. इंडिया शब्द वहां देशप्रेम नहीं दमन और भेदभाव की स्मृति जगाता है. लेकिन इससे भी बड़ा मसला जीने के संसाधनों पर कब्जे का है. पहले असम में जमीन बहुत ज्यादा थी और आबादी कम. तब सबका स्वागत था. लेकिन अब सीमित संसाधनों पर दखल के लिए असमिया, बोडो, मिरी, हिंदीभाषी और बांग्लादेशी मुसलमान सभी जूझ रहे हैं और खूनखराबा जारी है. राजनेता इस जटिल प्रश्न को हल करने के बजाय नफरत को सत्ता पाने की सीढ़ी की तरह इस्तेमाल कर रहे हैं.

क्या आप पूर्वोत्तर की यात्रा पर निकलते समय ही यह तय कर चुके थे कि इस यात्रा संस्मरण को एक किताब की शक्ल में लाएंगे?
नहीं, जाते समय सिर्फ रिपोर्टिंग का इरादा था. किताब के बारे में सोचना उन दिनों की मनःस्थिति में मुमकिन नहीं था. मेरे दोस्त पंकज श्रीवास्तव (जो इन दिनों एक हिंदी समाचार चैनल में हैं) ने यह कह कर एक डायरी जरूर दी थी कि लौटने के बाद वहां के संस्मरणों को दोस्तों के बीच सुना जाएगा. लेकिन लौटते ही मैं प्रेम में पड़ गया. कुछ दिन बनारस में नौकरी की, फिर आदिवासी नायकों पर कामिक्स लिखने, बिरसा मुंडा पर फिल्म बनाने और एक ट्राइबल म्यूजियम बनाने की एक महत्वाकांक्षी योजना पर मुग्ध होकर झारखंड में भटकने लगा जो बुरी तरह फ्लाप हुई. फिर अचानक लखनऊ में घर बस गया. मैं पूर्वोत्तर को एकदम भूल गया. वह तो सेंटर फॉर साइंस एंड इनवायरनमेंट की रिपोर्टिंग फेलोशिप के कारण अरुणाचल का एक और लंबा चक्कर लगा कर लौटने के बाद 2005 में मुद्राराक्षस ने लखनऊ से एक पत्रिका निकाली जिसके लिए यह संस्मरण लिखना शुरू किया. उन्होंने झक में चार अंक बाद पत्रिका बंद कर दी. मैंने लिखना बंद कर दिया. तब से वही पत्रिकाओं, अखबारों, ब्लागों में यदा-कदा छपता रहा और कोई न कोई पाठक या दोस्त कहता रहा कि इसे किताब की शक्ल में आना चाहिए. जब अंतिका प्रकाशन के गौरीनाथ पीछे पड़ गए तब इतने साल बाद मैंने पूर्वोत्तर में पहने कपड़ों, वहां के नक्शों, डायरियों, स्केचों, चिट्ठियों, तस्वीरों, जुटाए गए दस्तावेजों से भरा झोला खोला और उस यात्रा को रिकंस्ट्रक्ट किया. सच कहूं तो यह गौरीनाथ और मेरे बच्चे टीपू की किताब है. वे दोनों न होते तो यह कभी न लिखी जाती. मैं छपने न छपने से उदासीन हो चुका था.   
पत्रकार व लेखक अनिल यादव अपने निराले अंदाज में; फोटो: प्रमोद अधिकारी 
आपने बताया कि आपने एक प्रोजेक्ट के सिलसिले में झारखंड की भी यात्रा की है. क्या इस इलाके के बारे में भी कुछ लिखेंगे?
झारखंड तो मैं एक साल रह गया. इसके अलावा मैं पंजाब, हिमाचल और दक्षिण के छोटे कस्बों और गांवों में भी कुछ वक्त बाइक से बेमकसद भटका हूं. लेकिन अब मैं कुछ ठोस,  शोधपरक काम करना चाहता हूं. ऐसी जगहें जहां सरकार, लोकतंत्र, विकास वगैरह लगभग अनुपस्थित हैं, जहां बस आदमी है और निर्मम प्रकृति है वहां लोग कैसे जीते हैं, इस बारे में लिखना चाहता हूं. मसलन तिब्बत के भीतरी हिस्सों के बारे में रहस्य की जो कहानियां हैं वे मुझे उकसाती हैं. जानना चाहता हूं कि मध्य प्रदेश के अबूझमाड़ के जंगल के भीतर आदिवासी और नक्सली कैसे रहते हैं या एक समुद्री मछुआरे का जीवन कैसा होता है. अगली यात्रा पुस्तक का अस्तित्व मेरे पास संसाधनों के होने न होने पर निर्भर है. हो सकता है मेरी अपनी शर्तों पर कोई प्रायोजक भी मिल जाए.   

पूर्वोत्तर को लेकर अज्ञेय का भी काफी महत्वपूर्ण काम रहा है. उनके काम को किस तरह से देखते हैं?
अज्ञेय के यात्रा वृत्तांत मैं पहले पढ़ चुका था. लेकिन वे कहानियां जो पूर्वोत्तर में घटित होती हैं, मैंने इस यात्रा के दौरान ही पढ़ीं. उनमें भारत और फौज के प्रति असंतोष की ध्वनि है. लेकिन तब से अब के बीच ब्रह्मपुत्र में काफी पानी और खून बह चुका है. अब हर आदिवासी समुदाय की अपनी एक साहित्य सभा है जो उनकी बोली की लिपि बना रही है और एक गुरिल्ला संगठन है जो एक अलग राज्य या देश मांग रहा है. साथ ही उनके गुस्से के ढेरों आदिवासी राजनीतिक सौदागर हैं. लेकिन अज्ञेय के काम और बहुआयामी व्यक्तित्व की हमने क्या कद्र की? हिंदी के गोष्ठीबाजों ने उन्हें रिड्यूस कर एक साहित्यिक गिरोह के नेता और कलावादी के रूप में नई पीढ़ी को पहचनवाया. मुझे लगता है कि हिंदी के पास अज्ञेय के रूप में एक अपना रवींद्र नाथ टैगोर था. हमने उसे नहीं पहचाना और खो दिया.

हिंदी साहित्य का कोई भी नामचीन समीक्षक इस किताब के बारे में कुछ भी लिख-बोल नहीं रहा है.
हिंदी के दो बड़े लेखकों स्वयं प्रकाश और ज्ञानरंजन ने इस किताब की समीक्षा की है. टीवी और प्रिंट के कुछ अच्छे पत्रकारों ने भी रिव्यू किया है इसलिए यह कहना कि कोई लिख-बोल नहीं रहा है, ठीक नहीं होगा. दूसरी बात, मैं नितांत निजी वजहों से लिखता हूं इसलिए आलोचकों, समीक्षकों की परवाह नहीं करता और उनसे किसी प्रकार की अपेक्षा नहीं रखता. मुझे लगता है कि लेखक जरा उपेक्षित और गुमनाम रहकर ही अच्छा काम कर सकता है. उपेक्षा मेरे भीतर की आग को लहकाने का काम करती है. ज्यादा नामवरी किसी भी लेखक के लिए फंदा है जो फंसा कर अपनी कीमत अंततः वसूल ही लेती है. आलोचना अब रचना को विश्लेषित करने के बजाय चमचे और विपुल मात्रा में घटिया साहित्य निर्मित करने का जरिया बन रही है. हिंदी का सबसे बड़ा आलोचक सबसे बड़ा जोकर बन चुका है. असल बात यह है कि यदि आपकी विषयवस्तु में दम है तो नामचीनों की चुप्पी के बावजूद अपनी जगह बना लेंगे. नहीं तो कितनी भी शुरुआती हाइप बना लें फुस्स हो जाएंगे.