गुरुवार, अगस्त 13, 2009

बनाने वाले…………

बर्तन बिखरे हुए, सड़क किनारे
चुल्हे पे है रोटी पकती, सड़क किनारे
बच्चे रोते, लडते और सो जाते, सडक किनारे

दिन का सूरज, सड़क किनारे
रात मे चान्द, सड़क किनारे
आना-जाना,
खाना-पीना,
लडाई-झगड़े,
प्यार-मोहबत, सब कुछ इनका सडक किनारे

वास्तव मे, ये महानगरों की सडक बनानेवाले हैं!!!

मंगलवार, अगस्त 11, 2009

बैतुल्लाह के बहाने

(मैं यह पोस्ट बीबीसी हिन्दी के ब्लॉग खरी-खरी से उधार लेकर यहाँ चस्पा रहा हूँ क्योंकि मुझे लगता है की हमारे ज्यादातर पत्रकारों की रिपोर्ट में, पत्रकारिता के इस आवश्यक तत्व की कमी दिखती है और इस लेख के असली लिखवैया "राजेश प्रियदर्शी" ने बड़े ही सहजता से इसे बयान किया हैहम सभी पत्रकारों के लिए)

पत्रकारिता की अपनी सीमाएँ हैं.किसकी नहीं हैं?

तालेबान कमांडर बैतुल्लाह महसूद ने पहले पाकिस्तानी सेना की सीमाओं का एहसास कराया और अब अनजाने में पत्रकारिता का भी.

हमने पहले पाकिस्तानी मंत्रियों के हवाले से बताया कि महसूद 'लगता है कि' मारे गए हैं, अब तालेबान के एक कमांडर कह रहे हैं कि वे ज़िंदा हैं.

दोनों में से एक ही बात सच हो सकती है, हम दोनों कह रहे हैं फिर हम सच कैसे कह रहे हैं?

दुनिया की लगभग हर समाचार संस्था सिर्फ़ सच रिपोर्ट करने का दावा करती है, हम भी करते हैं.

बैतुल्लाह ही नहीं, डूबी हुई नावें, टकराई हुई रेलगाड़ियाँ या फटे हुए बम... अक्सर पत्रकारों के लिए इम्तहान बनकर आते हैं.

पहले पुलिस कमिश्नर कह जाते हैं कि '50 लोग मारे गए', फिर गृह मंत्री बताते हैं कि '45 लोग मारे गए'... तो क्या इसका ये मतलब हुआ कि पाँच लोग मरकर जी उठे?

इन पेंचों को पत्रकारिता के उस्ताद ख़ूब समझते हैं. ख़बरों के कारोबार टिके रहने के लिए सबसे ज़रूरी चीज़ है साख. यही वजह है कि हर विश्वसनीय समाचार माध्यम बताता है कि ख़बर किस ज़रिए से रही है, यह उसकी अपनी खोज नहीं है.

जब हम महसूद के मारे जाने की ख़बर तैयार कर रहे थे तो हमारे एडिटर ने याद दिलाया- 'ये ज़रूर कहना कि तालेबान ने इसकी तस्दीक नहीं की है, और ऐसे कई दावे पहले ग़लत साबित हो चुके हैं.'

हमने एक तरह से मान लिया था कि महसूद मारे गए हैं, हमने ये चर्चा भी कि उनकी जगह कौन लेगा, लेकिन साथ ही हमने लोगों को कई बार याद दिलाया कि पाकिस्तानी मंत्री ऐसा कह रहे हैं तालेबान या महसूद के परिजन नहीं.

सच को ढूँढ निकालने का जोश अच्छा पत्रकार होने की शर्त है, मगर संयम और सतर्कता हमेशा अच्छा पत्रकार बने रहने का पहला नियम.

सीमाओं को याद रखना चाहिए और उनका सम्मान करना चाहिए, ख़ास तौर पर पत्रकारों को.

कुछ लोग कहते हैं कि रेस में ध्यान सिर्फ़ तेज़ दौड़ने पर होता है, लेकिन मुझे लगता है कि अपनी लेन में ही दौड़ना चाहिए उसके बाहर नहीं

(बीबीसी हिन्दी से सभार)


रविवार, अगस्त 09, 2009

वेब को वेब ही रहने दीजिये टीवी मत बनाइए……

अभी दो-तीन दिन पहले एक खबर आई कि एक फिल्मी अदाकारा को एक बुजुर्ग साधू ने चूम लिया. इस ख़बर का टीवी वालों ने क्या किया पता नही क्योंकि टीवी अपने पास है नहीं, लेकिन वेब पोर्टल पर इस खबर को खूब जगह मिली और इस खबर में भाषायी नमक-मिर्च मिला कर परोसा गया।

एक टीवी पत्रकार ने इस ख़बर को अपने अन्दाज़ मे तीन-चार पोर्टल को बांटा और हर पोर्टल और कुछ ब्लॉग ने इसे अपने यहाँ जगह दी.

मैं एक वेब ब्लॉग का खास तौर पर ज़िक्र करना चाहूँगा क्योंकि इस ब्लॉग को चलाने वाले ज़्यादातर युवा हैं और मुझे नही लगता कि इस ब्लॉग से उन सभी का कोई व्यवसायिक हित जुड़ा होगा. मै हाल हीं मे चर्चा मे आए ब्लॉग “सलाम ज़िन्दगी” के बारे में बात कर रहा हूँ. मैं इस ब्लॉग से बहुत प्रभावित हूँ क्योंकि उसके सदस्य अच्छा लिखते हैं और दिल से लिखते हैं. लेकिन मालूम नहीं, इस खबर को लिखते समय उन लोगों को क्या हो गया था!

अव्वल तो मुझे ये कोई इतनी बड़ी घटना ही नहीं लगती कि इसे छापा या कवर किया जाए. उस खबर के साथ लगी फोटो से उस बुजुर्ग साधू की उम्र का साफ-साफ पता चलता है और अगर उस अदाकारा को कोई ऐतराज़ नहीं है तो हमें क्या पड़ी है कि हम उसमे अश्लीलता खोज़ते फिर रहें हैं और उस साधू की नीयत मे खोट देख रहें हैं.

दूसरी बात अगर हम ऐसा कर भी रहे हैं मतलब एक औरत पर हो रहे अत्याचार को दुनिया के सामने ला रहे हैं तो किस अन्दाज़ में. बानगी के तौर पर एक-दो शीर्षक दे रहा हूँ जो उस खबर के लिये लिखे गए.

1. आशीर्वाद मे चुंबन…..!......जय हो…….!!(भड़ास फ़ॉर मीडिया)
2. मंदिर में तार-तार हुई मर्यादा-आशीर्वाद में चुंबन (हिन्दीमीडिया.इन)
3. शिल्पा जी एक किस यहाँ भी
…….(सलाम ज़िन्दगी, एक सामुहिक ब्लॉग)


यहाँ, इन तीनों पोर्टल का नाम मैने इसलिये लिया क्योंकि मै इनको नियमित रूप से देखता हूँ और कहीं न कहीं एक जुड़ाव भी महसूस करता हूँ, तीनो की अपनी-अपनी साख है.

एक मिनट के लिए अगर मै यह मान भी लूँ कि दोनों पोर्टल व्यवसायिक हैं और उनकी कुछ मजबूरियाँ रहीं होंगी इस खबर को देने के पीछे तो ये समझना मुश्किल हो रहा है कि “सलाम ज़िन्दगी” ने इस ख़बर को क्यों उठाया और वो भी इस तरह कि (शिल्पा जी एक किस यहाँ भी…….) शीर्षक के साथ!! इस ब्लॉग के होम पेज पर जिन पाँच लोगों की तस्वीरें लगीं हैं उन में से दो लड़कियाँ हैं जिन्हेने इस खबर को इस शीर्षक के साथ जाने दिया. अक्सर मैने ऐसा देखा है कि लड्कियाँ इस तरह की खबरों पर विरोध करना चाहती हैं लेकिन उन्हे वहाँ मार्केट की माँग बता कर या नौकरी से निकाले जाने का धौंस दिखा कर चुप करा दिया जाता है लेकिन यहाँ तो ऐसा कुछ भी नहीं था फिर क्यों लड़कियाँ चुप रहीं?

वहीं, हिन्दीमिडिया की सम्पादक एक महिला हैं और मुझे ताज्जुब हो रहा है कि उन्हें एक साधू जो अपनी ज़िन्दगी की आखरी पायदान पर है, के चुम्बन से मन्दिर की मर्यादा भंग होती दिख गई लेकिन खबर की पहली ही लाईन “रिचर्ड गैरे के जबरन चुंबन की चुभन झेल चुकी शिल्पा शेट्टी के गुलाबी गाल पर एक बार फिर से चुंबन जड़ दिया गया। फर्क इतना है कि पहले उन्हें अभिवादन के नाम पर चूमा गया था इस बार आशीर्वाद में!” मे इस्तेमाल किये गये शब्द “गुलाबी गाल” से कोई आपत्ती नहीं हुई. अगर इस लाइन से इस शब्द को हटा दिया जाता तो ऐसा नहीं है कि लाईन का मतलब बदल जाता. हाँ, औरत की मर्यादा थोड़ी बच जाती.

अगर ये इतनी ही बड़ी ख़बर थी तब तो एक बाप अपनी जवान बिटिया को और एक माँ अपने जवान बेटे को भी चूमने से कतराएगी.

क्या हमारे यहाँ चुम्बन का एक ही मतलब होता है? क्या किसी को चूमने का एक यही मतलब होता है कि आप के मन में सेक्स की भावना जग रही है? अगर हर चुम्बन का यही मतलब हो तब तो ठीक है लेकिन अफसोस ऐसा है नहीं.

ख़ैर, मुद्दे पर आ जाते हैं. अगर आप वेब पोर्टल वाले और हम ब्लॉग वाले भी ख़बर में तड़का मार कर अपने पाठकों को परोस रहे हैं तो पत्रकारिता के किस मर्यादा का पालन हो रहा है?

अन्त, आपसब से अनुरोध है कि वेब को वेब ही रहने दीजिये टीवी मत बनाइए……