दस नवंबर की सुबह छ: बजे का समय. पटना को उत्तर बिहार से जोड़ने वाली गांधी सेतू पर बड़ी और छोटी गाड़ियां एक लाईन से खड़ी हैं. यातायात पूरी तरह ठप्प है. केवल मोटरसाइकलें निकल पा रही हैं. अहले सुबह सेतू पर यातायात ठप्प होने एक मात्र कारण है- आज कार्तिक पूर्णिमा का होना और आज से ही विश्व प्रसिद्ध सोनपुर मेले का आरंभ होना. माथे पर गठरी रखे, छोटे बच्चों का हाथ पकड़े और खुद से न चल पाने वाले छोटे बच्चों को गोद में चिपकाए लोगों का रेल्ला सोनपुर की तरफ बढ़ रहा है. इस रेल्ले में औरतों की संख्या मर्दों की तुलना में ज्यादा मालूम होती है.
यह रेल्ला, कार्तिक पूर्णिमा के अवसर पर गंगा में डुबकी लगाने, स्थानीय हरिहरनाथ मंदिर में जल चढ़ाने और साल में एक बार लगने वाले छत्तर मेला (सोनपुर मेला का स्थानिय नाम) में घुमने, खरीदारी करने, तरह-तरह के करतब देखने और खाने-पीने के लिए आसपास के ज्यादातर इलाकों से, हर साल निकलता है. मेला देखने और गंगा स्नान करने के लिए आनेवाले, मेला स्थल और गंगा घाट तक पहूंचने के लिए करीब-करीब सात से आठ किलोमीटर की दूरी पैदल तय करते है क्योंकि कार्तिक पूर्णिमा के दिन होने वाले विशाल जुटान को देखते हुए स्थानीय प्रशासन हाजीपुर से सोनपुर की तरफ जाने वाली गाडियों को बद करवा देता है.
कार्तिक पूर्णिमा से शुरू होकर अगले पच्चीस-तीस दिनों तक चलने वाले इस सोनपुर मेले को देश-दुनियां में एशिया के सबसे बड़े पशु मेले के तौर पर जाना जाता है लेकिन मेले की यह पहचान पिछले कुछ सालों से मिटती जा रही है. मेले में बिक्री के लिए आने वाले पशुओं की संख्या लगातार घटती जा रही है. चाहे वो दुधारू मवेशी गाय और भैंस हो या पूर्व में शान की सवारी समझे जाने वाले हाथी, घोड़ा या उंट हों. शुरू-शुरू में इस मेले में पूरे मध्य एशिया से व्यापारी पर्शियन नस्ल के घोड़ों, हाथी, अच्छी किस्म के ऊंट और दुधारू मेवेशियों के लिए यहां तक आते थे. लेकिन यह सिलसिला पिछले कुछ सालों से बंद है. अब इस मेले में जानवरों की खरीद-बिक्री न के बराबर होती है. कहें तो अब यह मेला बड़े जानवरों की प्रदर्शनी भर बन के रह गया है. इस बार के मेले में गोरखपुर से अपने हाथी के साथ आए उदय ठाकुर बड़े शान से कहते हैं, "अब हाथी तो मुश्किल से ही इस मेले में बिकें लेकिन हम तो इस बार मेले में केवल चार हाथी घुमाने के लिए आते हैं. हाथी है. मेले में लाएं हैं. मेला घुमाएंगे और वापस ले जाएंगे" बातचीत में उदय ठाकुर बताते हैं कि गोरखपुर से यहां तक हाथी को आने में दो सप्ताह का समय और उन्हें बीस हजार का खर्चा आया है. इस बातचीत से यह तो साफ हो जाता है कि अब यहां जानवरों के खरीदार नहीं आते. जब खरीदार ही नहीं आएंगे तो कौन केवल शौक के लिए या जानवर को मेला घुमाने के लिए बीस हजार रुपए लगा कर यहां तक आएगा. यह समस्या सोनपुर मेले के स्वर्णिम इतिहास को धीरे-धीरे मिटाता जा रहा है.
जानवरों के अलावा मेले में जरुरत की हर छोटी-बड़ी चीजों की दुकाने सजी हैं. बच्चों के मनोरंजन के लिए मौत का कुंआ, इक्षाधारी नाग-नागीन का खेल, झूले और खेल-खिलौनों की दुकाने लगी हैं तो दूसरी तरफ जवान लड़कों और मर्दों के मनोरंजन के लिए कई थियेटर कम कपड़े पहने लड़कियों के आदमकद कटआउट्स लगाए मेले में खड़े है. थिएटरों में काफी कम छोटे कपड़े पहने हुए लड़कियों के नाच शाम से शुरू हो जाते हैं और फिर देर रात तक केवल थिएटर के अंदर और बाहर ही चहलपहल दिखती है. यह एक विडंबना ही है कि पशुओं के लिए विख्यात मेले में आज इन थिएटरों का प्रमुखता से कब्जा है. मेले की हालिया पहचान भी इन थिएटरों से ही जुड़ रही है. थिएटरों पर नाच की आड़ में अश्लीलता परोसने के आरोप भी लगे हैं और इन आरोपों की वजह से एक बड़ा वर्ग सोनपुर मेले को ही अश्लील मानने लगा है और इस तरफ रुख करने से बचने लगा है.
अपनी असल पहचान खोते और अश्लीलता का आरोप झेलते इस मेले का इतिहास काफी पुराना और दुरुस्त है. माना जाता है कि यह मेला मौर्यकाल से लगता आ रहा है. चंद्रगुप्त मौर्य, सेना के लिए हाथी खरीदने हरिहर क्षेत्र आते थे. 1888 में यहीं पर सर्वप्रथम गोरक्षा पर विचारगोष्ठी का आयोजन हुआ था. स्वतंत्रता आंदोलन में भी सोनपुर मेला बिहार की क्रांतिकारी गतिविधियों का केंद्र रहा है. वीर कुँअर सिंह लोगों में अंग्रेजी हुकूमत से संघर्ष के लिए जागरूक करने और अपनी सेना में बहाली के लिए यहां आते थे. अंग्रेजों के शासनकाल में ही इसे "एशिया का सबसे बड़ा पशु-मेला" नाम दिया गया था.
हालाकिं तमाम आरोपों और मेले के मिटते जाने की शंका और आशंकाओं के बीच इस मेले में आने वाले आम देहाती लोग को देखने-सुनने के बाद ऐसा लगता है कि ये लोग अपनी परेशानियों को पीछे छोड़ के यहां आते हैं. जमकर मस्ती करते हैं. जरुरी के सस्ते सामानों की खरीददारी करते हैं. खाते-पीते हैं और मेले के बारे में बोलते-बतियाते शाम ढ़ले अपने घर को लौट जाते हैं. मेले में आने वालों की संख्या और उनके मिजाज को देखकर इतना तो विश्वास हो ही जाता है कि सोनपुर मेला देहात की आम जनता का अपना मेला है.
जलढ़री: सोनपुर मेला, कार्तिक पूर्णिमा के दिन से प्रारंभ होता है. इस दिन को गंगा में स्नान करने और सोनपुर के हरीहर नाथ मंदिर में भगवान विष्णु की मुर्ति पर गंगा-जल से जलढ़री करने का रिवाज है. इस मौके पर राज्य के दूर-दराज वाले इलाकों से भी भक्तों की भीड़ गंगा स्नान करने और हरीहर नाथ मंदिर में जल चढाने है.
हाथी-बाजार: सोनपुर मेले को एशिया में सबसे बड़े जानवरों के मेले के तौर पर जाना-पहचाना जाता है. लेकिन मेले की यह पहचान बड़ी तेजी से सिमट रही है. इस बार के मेले में केवल चार हाथी आए. इस हाथी का नाम है-राजा. हाथी के मालिक गोरखपुर के रहने वाले उदय ठाकुर हैं.
नौटंकी की जगह थिएटर कंपनियां: पहले, तीस दिनों तक चलने वाले मेले में दूर-दूर के व्यापारी, जानवर खरीदने-बेचने वाले आते थे और तीस दिनों तक स्थायी तौर पर यहीं रहते थे सो मेले में नौटंकी दिखाने वाले भी भारी मात्रा में आते थे और लैला-मजनूं और दही वाली गुजरी की कहानियों का मंचन कर के लोगों का मन बहलाती थीं. आज नौटंकी वाले, वालियों की जगह बड़ी-बड़ी थिएटर कंपनियों ने ले लिया है और पराम्परिक कहानियों के मंचन की जगह फिल्मी आयटम सॉंग और भोजपुरी गानों पर होने वाले अश्लील नाच ने ले लिया है.
आराम का वक्त: अकसर लोग मेले में घूमते-घूमते थकान महसूस करने लगते हैं. अपनी थकान को भगाने के लिए लोग मेले के बगल वाली साधू गाछी (आम का बागीचा जिसे साधू गाछी के नाम से जाना जाता है.) में बैठ, आपस में बतियाते, कुछ खाते-पीते और एकाध झपकी लेते देखे जाते हैं.
कमाई का आसान रास्ता: तस्वीर में कंधे पर बांसुरियों को लादे जो लड़का खड़ा है वह दस वर्षिय “अरमान” है. अरमान, बांसुरी बेचने का काम करता है. वैसे तो उसे बांसुरी बेचने के लिए हर रोज इलाके के अलग-अलग जगहों पर पैदल जाना होता है. लेकिन अगल कुछ दिनों तक अरमान आसानी से हर रोज दो सौ रुपय की कमाई करता रहेगा. उसे केवल इतना भर करना होगा कि अपनी बांसुरियों के साथ मेले में आ के खड़ा हो जाए.
खरीद-बिक्री: वैसे तो यहां हर तरह के सामानों की खरीद-बिक्री होती है लेकिन इस मेले में श्रिंगार-पटार के सामानों को बेचननिहार और खरीदने वाली महिलाएं बहुलता से दिखती है. मेले में हर तरफ, सड़क किनारे लगाए गए किसी छोटे से दुकान पर गवईं औरतों की टोली श्रिंगार के सस्ते सामानों की खरीददारी करती दिखती हैं.
खेल-तमाशा: मेले में हर तरफ कोई न कोई खेल-करतब चलता रहता है लेकिन “मौत का कुआं” का कतरब देखने वालों की संख्या सबसे ज्यादा होता है. इस खेल में दो मोटरसाईकिल चालक लकड़ी की खड़ी दिवार पे मोटरसाईकिल दौड़ाते हुए तरह-तरह के करतब दिखाते हैं. दर्शक, दस रुपय का टिकट लेकर इस खेल का मजा लेते हैं और चेहरे पे आश्चर्य का भाव लिए बाहर निकलते हैं.
घुड़दौड़: इलाके के पुराने लोग बताते हैं कि कालांतर में घोड़ों की यह दौड़ इसलिए हुआ करती थी कि खरीददार अच्छे नस्ल के घोड़ों को पहचान सकें, चाल देख सकें. लेकिन पिछले कुछ वर्षों के दौरान मेले में आने वाले घोड़ों की संख्या और घोड़ों के खरीददार दोनों में भारी कमी आई है. फिलहाल यह दौड़ मेले में आने वालों का मनोरंजन करती है.