गुरुवार, मई 26, 2011

रिजल्ट का दिन, काला दिन.


कल, बिहार में दो-दो परिक्षाओं के परिणाम निकले. पहला अई.अई.टी. जे.ई.ई  का और दूसरा मैट्रिक  का.  पहले वाले रिजल्ट से अपन का कोई भावनात्मक लगाव नहीं है. कभी सपने में भी आई. आई, टी. के बारे में न सोचने वालों की जमात में से रहा हूं. लेकिन शिक्षा की सड़क पे बनाए गए मैट्रिक रुपी बैरियर से तो गुजरना ही पड़ा. इससे बच निकलने का कोई दूसरा रास्ता था ही नहीं. अगर होता तो मैं उसे जरुर अपनाता और फिर बड़ी खुशी-खुशी पापा द्वारा किए गए लत्तम-जुत्तम को सह लेता.  ये सौभाग्य प्राप्त नहीं हुआ. मार-पिटाई हुई लेकिन रिजल्ट आने के बाद. लात, थपड़ और घुसों की जमकर बरसात हुई. 

मुझे अच्छे से याद है. सुबह के साथ बजे होंगे. मैं कोठरी( घर का बाहर वाला कमरा) में लगे चौकी पर मछरदानी लगा के चैन से सो रहा था. बिल्कुल निफिक्री में.  तभी कान में आवाज आई. “अरे….रिजल्ट आ गया तिरहुत प्रमंडल का.” लगा कि सपना देख रहा हूं.  मैं बिल्कुल निश्चिंत था कि अगले एक- दो दिन तक तो रिजल्ट नहीं ही आएगा.  आज तक नहीं पता चा्ला कि उस बेफिक्री का आधार क्या था. 

खैर, मेरे मानने और न मानने से क्या होता है. रिजल्ट का भूत गांव की सड़क पे घुम रहा था.  सभी बच्चे अपने-अपने रौल नंबर का मिलान करने के लिए हरी भाई के दरवाजे की तरफ जा रहे थे क्योंकि दो रुपय में आने वाला आज अखबार केवल उन्हीं के यहां आता था. ये सब मैंने देखा नहीं. आधी नींद में रहते हुए महसुस किया था. मैं अपना रिजल्ट जानता था और उसके बाद क्या होने वाला था वो भी जानता था. तभी तो हर रोज यह मनाता था कि रिजल्ट आए ही नहीं.  अखबार में देखने का बिल्कुल मन नहीं था. लेकिन अंगना में चुल्हे पर रोटी बनाती मम्मी को और जन-मजूरा की तलाश में पछियारी टोला गए पपा को अपने मन की बात बताने की हिम्मत नहीं थी.  

पपा, परीक्षा के फौरन बाद नंबर का हिसाब लेते थे. मैथ में कितना आएगा? फिजिक्स और केमेस्ट्री में क्या मिलेगा? और मैं उन्हें हर विषय में सत्तर से अस्सी नंबर के बीच का आंकड़ा पकड़ा देता था. जबकी मुझे पता होता था कि हर विषय में मेरे अंक चालिस से पच्चास के बीच झुलेंगे. झूठ कहता था उनसे. उस वक्त मुझे इसका कोई अफसोस भी नहीं होता. बल्कि खुशी होती. सोंचता, ’चलो…..बढिया है. इस तरह लात खाने से तो बच गया” 

जैसी की मुझे उम्मीद थी. हरी भाई के अखबार ने भी मुझे वही परिणाम दिए. मैं मैट्रिक की इस बैरियर को सेकेंड गेयर से पार कर गया था. मुझे, मेरा रिजल्ट मिल गया था. मैं सतुष्ट था लेकिन घर पे किसी को विश्वास ही नहीं हो रहा था. सबको लग राहा था कि मुझे फर्स्ट क्लास से पास होना चाहिए. 

 मेरे मैट्रिक का रिजल्ट जब पपा को पता चला तो उनके गुस्से का बम घर में फट पड़ा. इसके बाद जो हुआ वो मैं शुरु में ही बता चुका हूं. बार-बार बताना अच्छा नहीं लगता. 

खैर, इस सब  में मेरे पापा की ज्यादा गलती नहीं थी. उनकी गलती ये थी कि मारते वक्त वो यह भूल जाते थे कि मैं उन्हीं का बच्चा हूं. मैं पढ़ने में बिल्कुल भुसकौल था. जब मेरे दोस्त –यार परीक्षा की तैयारी कर रहे थे तब मैं आगामी विधानसभा चुनाव के चुनावी माहौल का मजा ले रहा था.क्या करता, सब्जेक्ट की किताबों से ज्यादा मुझे चुनाव प्रचार की गाड़ियां. चुनाव से पहले का हो हल्ला और चुनावी संबंधी बातें अपनी तरफ खिंचती थीं.
कल का दिन, मेरे रिजल्ट वाले काले दिन की याद दिला गया.

सोमवार, मई 23, 2011

सरकारी गरीब की खोज( पार्ट -1)


पटना के अपने आफिस में अभी पहूंच कर फेसबुक खोला ही था कि हमारे दिल्ली आफिस से फोन आया. जब फोन आया तो मुझे उठाना ही था सो मैंने उठाया और जैसे सभी फोन उठाते ही “हैलो” से शुरुआत करते हैं वैसे मैंने भी हौले से हैलिया दिया.

दिल्ली आफिस: सुनिए……अंग्रेजी में बीपीएल के उपर एक स्टोरी जा रहे है तो उसके लिए पटना से एक केस स्टडी चाहिए. हो जाएगा न?

मैं (पटना आफिस से): किस तरह का?

दि०आ०: कुछ दिन पहले  ये तय हुआ है कि शहरी क्षेत्र में रहने वाला जो व्यक्ति रोजाना 20 रुपय से ज्यादा खर्च करेगा वो गरीबी रेखा से उपर माना जाएगा. ग्रामीण क्षेत्र के लिए 15 रुपय रोजाना खर्च करने की सीमा तय की गई है. आपको एक गरीब खोजना है और उससे पूछना है कि अगर उसे एक दिन में बीस रुपय खर्च करने हो तो वो क्या करेगा? मामला समझ में आ गया न?  एक बात और….जिससे भी बात करेंगे उसकी एक हाई रेजुलेशन फोटो भी चाहिए.

मैं: हां…..हो जाएगा. ( मन में चल रहा था कितना आसान काम है. बिल्डिंग से नीचे उतरते हीं बहुत से गरीब मिल जाएंगे.)

दि० आ०: ठीक है फिर भेजिए…….आज शाम तक ही चाहिए.

 मैं: हो जाएगा…….भेजता हूं, शाम तक.

फोन कट गया. मैं गरीब खोजने की जुगत में लग गया. इस दौरान और बहुत कुछ हुआ लेकिन उसे बताने बैठूंगा तो बहुत लिखना पड़ेगा और ज्यादा लिखना अपन को पंसंद नही. मुंह से चाहे जितना बकवा लो. लिखने में नानी याद आने लगती है मेरी.

इसलिए थोड़ा जम्प मारते हुए आपको सीधे बिल्डिंग से सड़क पे ले चलता हूं.

सड़क पे बहुत से रिक्शे, ठेले वाले सर्र-सर्र भागती गाडियों के बीच रेंग रहे थे. कुछ लोग पेड़ की छांव में रिक्शे की पीछे वाली सीट पर दुबके अउंघा रहे थे.

मैं इस सोंच से दुबला हुआ जा रहा था कि किसे रोकूं. जो सवारी लेकर जा रहा है वो रुकेगा नहीं. जो सोने की कोशिश कर रहा है उसे अपने पत्रकारिय काम के लिए उठा देना ठीक नहीं. फिर धेयान आया कि जो खाली हो और जगा हो उसे पकड़ा जाए. सो एक ऐसा रिक्शा वाला मिल ही गया. मैं उसके पास गया. बोला, “मेरा नाम विकास है. आपका क्या नाम है?”

रिक्शा वाले भाई ने मुझे उपर से नीचे तक एक्सरे किया. उसके आंख का कैमरा मेरे पेट के पास लटके बैग तक आकर रुक गया. वहीं देखते हुए बोला, “ नाम से का मतलब. कहां चलना है ये बताइए.”

“जाना नहीं है. आपसे बात करनी है. पत्रकार हूं.” मैंने कहा.

कान पे हांथ रखते हुए उसने ऐसे पूछा जैसे उसे सुनाई न दिया हो. लेकिन माजरा कुछ और था सो मैंने उसे सफाई दी, “ अखबार में लिखता हूं. आपसे कुछ बतियाना है”

 अबकी वो समझ गया. “बताइए का कहना-सुनना है?”

“आपका लाल कार्ड बना है” मैंने पूछा.

बगैर एक पल बिताए उसने कहा, “ नहीं बना है.”

“काहे नहीं बना है’ मैं बोला.

“का करना है आपको….. ये न बताइए. हमरा लाल कार्ड बना चाहे न बना आपको का मतलब है उससे?” थोड़ा तमतमा कर बोला.

मैंने मुस्कुराते हुए फिर कहा, “बताइए न….. लिखना है कि काहे नहीं बना?”

“का हो जाएगा आपके लिखने से. बही न होगा जो मुखिया जी चाहेगा( राज्य का नहीं, उसके पंचायत का). ऊ चाहता है कि हम कार्ड बनवाने के लिए उसके आगे-पीछे करें . हमसे ई न होगा. हम अपना बाप का नज़ायज सुनवे नहीं करते हैं. ऊ मुखिया है तो का हुआ. कौनो लाट है का.”

वो थोड़ा ज्यादा ही गुस्से में आ गया. वैसे भी यह गरीब मेरे काम का नहीं था. मुझे तो सरकारी मायता वाला गरीब चाहिए था. ऐसा गरीब जिसे सरकार ने गरीबी रेखा के नीचे माना हो. सो मैंने इस बातचीत को यहीं पे लपेट लिया.( पत्रकारिय गुण भी तो यही है न. जहां स्टोरी नहीं बन रही वहां समय गंवाना बुरबकई है.)

नोट: पाठक( दो-चार जो भी हों.)  हिज्जे की गलतियों पर धेयान न दें. यह गलती यहां थोक में मिलेगी.