“मुनिरका गांव” साउथ दिल्ली के बीचों-बीच का एक ऐसा इलाका जो अब केवल नाम के लिए ही गांव है. यहां कुछ भी गांव जैसा नहीं है. न लोग और न जगह.
फिर भी इसे गांव ही कहा और लिखा जाता है. सवाला उठता है कि अगर इस इलाके में गांव जैसा कुछ भी नहीं है तो इसे गांव क्यो कह्ते हैं?
इसका एक जवाब जो हर कोई बड़ी आसानी से दे देता है कि इस इलाके से सबसे ज्यादा वोट पड़ते हैं सो कोई भी पार्टी इन कथित गांवो पर हाथ नहीं डालना चाहती और इसे जस का तस बने रहने देती है.
लेकिन क्या यही एक कारण है कि मुनिरका जैसे गांव आज भी दिल्ली के बीच में बने हुए हैं. इस इलाके का अगर कोई सर्व कराया जाए या कोई एक बार इस इलाके में आए तो आसानी से यह बात समझ सकता है कि यहां एक खास जाति वर्ग के दबदबा के कुछ भी गांव जैसा नहीं है.
बल्कि मै तो कहूंगा कि यहां गांव के नाम पर एक अराजकता बनी हुई है. अगर आप इस इलाके में रेंट पर रहते हैं तो आपके कोई औकात नहीं है, कोई इज्जत नहीं है.
आप कभी भी, कहीं भी, हल्की सी बात के लिए सामुहिक तौर पर पीटे जा सकते हैं. यहां यह मतलब नहीं रखता की गलती किसकी है? अगर आपकी गलती हुए तब तो कोई कहना ही नहीं है लेकिन अगर आपकी कोई गलती नहीं भी हुई तो भी आप मार खा सकते हैं और कोई कुछ नहीं बोलेगा, कोई नहीं बचाएगा.
अगर आप में से कुछ लोगों को लगे कि मैं किसी पूर्वाग्रह से ग्रसित हो कर ऐसा लिख और बोल रहा हूं तो मेरा मुनिरका आने का निमंत्रण स्वीकार करें.
आएं और खुद अपनी आखों से देखें दिल्ली के इस गांव के रहन-सहन को और फिर फैसला करें. कोई जल्दे नहीं है.
वैसे भी हम लोग कोई फैसला नहीं कर सकते. फैसला करने वाले तो कहीं और बैठते हैं. उन्हें तो मालुम भी नहीं होगा कि कहां क्या हो रहा है.
आज लिख रहा हूं लेकिन यह सब पिछले तीन साल से देख रहा हूं. मुझे समझ नहीं आता कि क्यों यह आज भी गांव कहा जाता है. मुझे इसका ठीक-ठीक कारण नहीं पता सो मैं कोई जवाब देने की हालत में नहीं हूं.
अगर आपके पास कोई जवाब हो तो जरुर दीजिए.