शुक्रवार, सितंबर 18, 2009

अब आपको भी शादी कर लेनी चाहिए......


एक लंबे समय बाद फिर गया हूँ आपके साथ, अपने ब्लॉग पर मैं छुट्टी पर था, करीब एक साल बाद अपने गॉंव, दूर तक फैले खेतों और अपनी माँ जो कुछ समय से जब भी फोन करती तो एक सवाल हमेशा पूछती कब आओगे? और मैं हमेशा किसी किसी वजह से उसे आगे की तारीख देता रहता था तो अब मैं वहीं था

अब चुकी मेरे पास डाटा-कार्ड नही था और नेट की सुविधा गॉंव से काफी दूर थी सो मैं दूर था अपने ब्लॉग से यहाँ एक बात साफ-साफ कहूं तो शुरू के कुछ दिन ही मुझे ब्लॉग से अलग रहने का मलाल हुआ

गॉंव पहुँचने के तीन-चार दिन बाद, एक दिन रात को मैं इस बारे में सोंच रहा था की नेट की उपलब्धता होती तो मैं गॉंव से भी अपने ब्लॉग पर लिखता रहता फिर मुझे लगा की सही ही था कि वहाँ मेरे पास यह सुविधा नही थी क्योंकि बेफिक्री से गॉंव की सड़कों पर घुमाने के लिए...... गॉंव में रहे-सहे अपने दोस्तों से(जो अब शादीशुदा ज़िंदगी जी रहें हैं) बतियाने का जिसमे वो अपनी शादी के पहले की खुशी और उसके बाद के झमेलों के बारे में खूब बतलाते थे ......
अपने माय( माँ ) से अंधेरे कमरे में लेटे-लेटे गपियाने का और उनसे वो सारी बातें सुंने का मौका गवां देता जो मेरी गैरहाजरी में गाँव में हुई

ये बात अलग है कि माँ ने इसी बातचीत के दौरान ये भी बतला दिया कि मेरे हमउम्र और मेरे साथ पढ़नेवाले कितने लड़कों की शादी हो गयी और उनमे से किस-किस के माँ-बाप दादा-दादी बनने वालें हैं.........

भाई, ये तो मैंने भी महसूस किया है कि मुझसे छोटे-छोटे कई लड़कों की शादी हो गयी उनमे से कुछेक तो अपने बच्चों के बाप भी बन चुके हैं और उन्ही में से एक जनाब ने बातचीत में अब मुझे भी शादी कर लेनी चाहिए की नसीहत भी दे डाली और तर्क दिया कि शादी एक ख़ास उम्र तक कर लेनी चाहिए।

जब मैंने पूछा कि वो अपनी शादी से खुश हैं तो वो 15 से 19 के बीच का नौजवान एकाएक 60 साल का बूढा हो गया और गोद में लिए अपने बच्चे को देखते हुए बोला " क्या है खुशी की चिन्हासी(निशानी) ही तो है अब इहे सबकुछ है....." इस बात को सुनकर मुझे हंसी आने लगी तो मैं वहां से हट गया
तो, अब मैं इस उलझन में हूँ कि शादी कि सही उम्र क्या है? क्या आप बतलायेंगे .......शादी की सही उम्र ?

गुरुवार, सितंबर 17, 2009

अरे बापू यह क्या किया?

(एक बार फिर एक सुंदर लेख बीबीसी की ब्लॉग से आपसबों के लिए लेख को लिखा है बीबीसी की तेज़तर्रार रिपोर्टर रेणु अगाल ने आप इस आलेख को बीबीसी के बेब पोर्टल पर भी पढ़ कते हैं......)

गांधीजी के नाम का आजकल भारत में कुछ ज़्यादा धड़ल्ले से इस्तेमाल किया जा रहा है. औ तो बेचारी गांधी की बकरी की भी याद सफेदपोश नेताओं को आने लगी है.

वाह किस्मत हो तो ऐसी. रस्मी तौर पर गांधी का इस्तेमाल भारत में आम है. पर अब जब मंदी का दौर है तो एक कपड़े में लिपटे, थर्ड क्लास में पूरा भारत दर्शन करने वाले और आश्रम में बकरी का दूध का सेवन करने वाले गांधी के आम आदमी को समझने के इसी हुनर को उनकी पार्टी, कांग्रेस के नेता आत्मसात करने में लगे है। पर बहुत बेमन से.

वित्त मंत्री के चाबुक के बाद कुछ मंत्रियों को पांच सितारा होटलों से निकल किसी मध्यवर्गीय की तरह एक आम राज्य गेस्ट हाउस में रहना पड़ रहा है.

बेचारे नेताओं को पुराने कारपेट, खटर पटर करने वाले एयरकंडीश्ननर से काम चलाना पड़ रहा है. न इटेलियन मार्बल, न बिज़नेज़ क्लास की सीटों का सुख..और तो और गाएं भैसों की तरह रेल के सफ़र की सोच से ही इन जनप्रतिनिधियों के पसीने छूट रहे हैं.

चुनावी समर में ही पसीना क्या होता है इन्होंने जाना था. और माना था कि उस मेहनत के बाद उन्हें न केवल एक बंगला मिलेगा न्यारा बल्कि पसीने की गंध को वो पांच साल तक भूल जाएंगे. पर ऐसा हुआ नहीं.

वे सब जानना चाहते है कि आखिर किस खुराफाती दिमाग़ की उपज थी कि आम आदमी के नाम पर चुनाव लड़े जाएँगे और उसे भुलाया भी नहीं जाएगा.

इस में भी ज़रुर हर चीज़ की तरह अमरीकी साजिश होगी. न मंदी होती न कमर कसने की मजबूरी और न ये गाय भैंस की सी ज़िंदगी. कुछ ग़लती अपनों की भी थी.

आखिर क्या ज़रुरत थी गांधीजी को बकरी पाल कर खुश होने की, जनता को जनार्दन का दर्जा देने की. उनको तो कम से कम देश के भविष्य के बारे में सोचना चाहिए था, नेताओं की दिक्कतों को समझना चाहिए था. वो तो अपने ही थे. बापू ने क्यों महात्मा बनने की सोची..क्यों, क्यों, आखिर क्यों।

(सभार-बीबीसी हिन्दी)