प्रोबिर गुहा देश के जानेमाने रंगकर्मी हैं. मेहनती हैं. ईमानदार हैं. अपने काम में माहिर हैं. जमीन से जुड़े हुए हैं. जिन्दादिल इनसान हैं. पश्चिम बंगाल से संबंध रखने वाले प्रोबिर गुहा द्वारा निर्देशित एक प्ले “बिशादकाल” देखकर अभी-अभी लौटा हूं. रात के बारह बज रहे हैं. शाम पांच बजे निकल गया था. क्योंकि मंचन का समय शाम सात बजे का था. लेकिन नाटक शुरू हुआ नौ बजे. बिशादकाल नाटक गुरु रविन्द्र नाथ टैगोर की कहानी “बिसर्जन” पे आधारित है. नाटक एक घंटे पैंतालिस मिनट का था. लेकिन देरी की वजह से इसे कांट-छांट के मात्र पैंतालिस मिनट का बना दिया गया. प्रोबिर दा ने और उनके कलाकारों ने मेरे सामने हीं. मंचन स्थल के बाहर. खड़े-खड़े. बीड़ी और सिगरेट पीते-पीते, एक घंटे पैंतालिस मिनट के नाटक में से एक घंटा निकाल दिया. मैं वहीं खड़ा था. लेकिन कुछ समझ नहीं पा रहा था कि हो क्या रहा है? क्योंकि रंगकर्मी आपस में बंग्ला में बतिया रहे थे. थोड़ी देर बाद प्रोबिर दा ने बताया कि नाटक को काट के छोटा कर दिया है. मैंने पुछा, कब दादा?(क्यों काटा?-असल सवाल तो यह होना चाहिए था लेकिन मुझे पता था कि समय की कमी हो रही है. आपको भी ऊपर ही बता दिया गया है.) प्रोबिर दादा ने जवाब में कहा, “अभी–अभी तो. यहीं, तुम्हारे सामने. तुम बंग्ला बिल्कुल नहीं समझते क्या?” मैंने “ना” में मुंडी हिला दी.
निर्देशक प्रोबिर गुहा(बीच में, माथे पे चश्मे का फ्रेम चढ़ाए) अपनी टीम के साथ. |
एक घंटे पैंतालिस मिनट के नाटक में से बचे हुए पैंतालिस मिनट के नाटक का मंचन शुरु हुआ. जिन कलाकारों को बाहर एक लाईन हिन्दी बोलने में भी दिक्कत हो रही थी वो मंच पे हिंदी के डॉयलॉग बहुत आसानी से बोल रहे थे. पूरे भावभंगिमा के साथ बोल रहे थे. उनका अभिनय, दर्शक को अभिनय नहीं लग रहा था. दर्शकदिर्धा में मानों सांप सुंघ गया था. कोई चूं-चां तक की आवाज नहीं आ रही थी.
नाटक में एक जगह , काली पूजा के दौरान जानवर की बलि देने का सीन है- मंच पे हल्की नीली रौशनी है. नगाड़े की आवाज गुंज रही है. पृष्ठभूमि से जय मां काली, जय मां काली, जय-जय मां काली, जय-जय मां काली की आवाज बुलंद हैं. मंच पे आगे की तरफ , तीन लड़कियां अपने-अपने केश खोले हुए, जमीन पर बैठीं हैं. गर्दन को गोल-गोल घुमा रही हैं. ठीक वैसे हीं जैसे बिहार में भुतखेली के समय कुछ महिलाएं अपनी गर्दन को घुमाती हैं.
नगाड़ा बज रहा है…बजता जा रहा है. जय-जय मां…की आवाज बुलंद हो रही है. लड़कियां लगातार गर्दन को घुमाए जा रही हैं. उनके लंबे –लबें काले केश भी उलझते-सुलझते गोल-गोल घुम रहे हैं. इसके बीच जानवर की बलि पड़ती है. मंच पे खुन आ जाता है. प्ले के हिंसाब से लाईट भी नहीं है. फ्लैट लाईट है. एक ही जैसा. फिर भी इस द्र्श्य को देखने के बाद मेरे रोएं सिहर गए. मेरे बगल में खड़े एक सीनियर फोटोग्राफर कृष्णमुरारी किशन बोल पड़े-गजब . (कृष्णमुरारी का जिक्र इसलिए कि मैंने आज तक. एक साल में उन्हें किसी प्रोग्राम के बारे में कुछ कहते नहीं सुना. वो आते हैं फोटो करते हैं और निकल जाते हैं.)
जानवर–बलि जैसे और भी बहुत से सीन थे उस नाटक में जिसे मंच पे उतारते समय कलाकार जी रहे थे. और जिसे देखते हुए दर्शक चुप्पी मारे बैठे थे.
जानवर बलि के समय का जीवंत दृश्य. |
प्ले खत्म हुआ. मैं बाहर निकलते समय यही सोंच रहा था कि पटना के रंगकर्मियों को. नाटक के निर्देशकों को और थिएटर कलाकारों को इस प्ले को देखना चाहिए था. लेकिन मेरा विश्वास है कि पटना के रंगकर्म से जुड़ा एक भी आदमी इसमे नहीं रहा होगा. अगर कोई रहा होगा तो उसे रातभर नींद नहीं आएगी. उसे पता चल जाएगा कि थिएटर मन से होता है. दिमाग से नहीं.
यह भी समझ आ जाएगा कि दमदार अभिनय, धाकर लेकिन आसानी से समझ आने लायक डॉयलॉग और सुलझे हुए निर्देशन से ही एक सुन्दर मंचन होता है.