बुधवार, अप्रैल 11, 2012

कुछ इधर-उधर की बातें फिर दिल्ली की यादें.


(पाठक तत्व के लिए खास सूचना- नीचे जो कुछ भी लिखा गया है. वो केवल लिखने के लिए लिखा गया है. सो अगर आपके पास अधिक समय है. आप बेकार बैठे हैं तो पढ़ने के लिए आगे बढ़ सकते हैं. इसमे मुझे कोई दिक्कत नहीं है लेकिन अगर आप किसी बेमतलब की चीज में दिमाग और समय नहीं लगाना चाहते तो इस “सूचना” को पढ़ने के लिए आपका शुक्रिया. आप लौट लीजिए. आपका समय किमती है. आगे, हिज्जे और स्त्रिलिंग-पुलिंग की गलतियां भी मिल सकती हैं.)

कई बातें कहना चाहता हूं. लिखना चाहता हूं. लेकिन सबकुछ एक साथ तो नहीं ही बोला या कहा जा सकता. एक बार में कई चीजें दिमाग में करवट लेने लगती हैं. रात में जब मैंने कहानीकार काशिनाथ जी की एक कहानी “महुआचरित” पढ़ी तो ख्याल आया कि इस कहानी को केन्द्र में रखते हुए कुछ लिखूंगा. किसी और के लिए नहीं. अपने ब्लॉग के लिए. बेजोड़ कहानी है-महुआचरित. एक औरत की कशमकश को बेहतरीन तरीके से कहानीकार ने पाठक के सामने रखा है. कहानी को पढ़ने के दौरान आप बीच में पेशाब-पखाना के लिए भी नहीं उठना चाहेंगे. कम से कम मेरे साथ तो यही हुआ. लेकिन रात में सोने और सुबह में उठने के बाद “महुआचरित” को केन्द्र में रखकर कुछ लिखने की सोच हवा हो गई.
   
     सुबह, ग्यारह बजे के करीब. एक राजनीतिक कार्यक्रम को कवर करते हुए. एक फोटो के लिए रेलमपेल करते हुए. टीवी के कैमरामैन्स को एक अदद बाईट के लिए उलटते-पुलटते देखकर मन हुआ कि घर जाकर “राजनीति और पत्रकारों” को लेते-लपेटते कुछ लिखूंगा. लिखूंगा कि कैसे हम कैमरा वाले यह जानते-समझते हैं कि सामने वाले को या हमारे अगल-बगल में खड़े आमलोगों को हमारी वजह से दिक्कत हो रही है लेकिन हम उन्हें धक्का मारते हुए आगे बढ़ते रहते हैं. कुछ को उलटा भी देते हैं. हम सब जानते-समझते हैं लेकिन नासमझ बने रहते हैं, उस दौरान. लोगों को बगल से गाली देते हुए भी सुनते हैं-ई साला मीडिया वाला सब के देख..कुत्ता जईसा कर रहा है. लेकिन कान बंद किए आगे बढ़ते रहते हैं. कैमरे की क्लिक..क्लिक की आवाज में इन गालियों को अनसुना करते रहते हैं. मैं यह भी लिखना चाह रहा था कि कैसे एक नेता या अधिकारी कभी हमसे बात करने को खुद आगे बढ़ता है और कभी-कभी अपने ऑफिस या घर के बाहर घंटो इंतज़ार करवाने के बाद उसका नौकर आकर कह् देता है-साहेब...सो रहे हैं. आपको फोन करेंगे.  इस जवाब का मतलब साफ होता है. “साहब नहीं मिलना चाह रहे हैं” अब नहीं मिलना चाह रहे, साहेब तो हम क्या कर सकते हैं. उलटे पांव लौट आते हैं.

इन्ही बातों को आगे बढ़ाते हुए लिखने का ख्याल आया. दिन के ग्यारह बजे के करीब. बिहार विधानसभा के अहाते में खड़े-खड़े. लेकिन बाईक से घर आने के दौरान यह विषय भी नहीं टिक पाया.

 घर आने तक भुख लग चुकी थी. और एक पुरानी कहावत है “भुखे भजन न हो हीं गोपाला” तो यह तय हुआ कि भुख्खे पेट लेख-वेख भी नहीं लिखा जा सकता. खाना बनाने में महारत है नहीं. चाय के अलाव कुछ और नहीं बना पाता, ठीक से. सो दूध-चिउरा में मिठ्ठा मिला के खा लिया. पेट की आग शांत हुई. वैसे, दूध, चिउरा और मिठ्ठा का अपना स्वाद है. बढिया है. वैसे इसमे अगर दो पके केले मल दिए जाएं तब तो पुछिए ही मत. लेकिन बगैर केले के भी यह भोजन बहुत ही उत्तम है. पेट भर गया तो नींद आई. कुछ लिखने का ख्याल नहीं आया. थोड़ी देर लेटने के बाद. समय पे नजर गई तो मालुम हुआ कि तीन बजने को है. साढ़े तीन बजे से एक कार्यक्रम है. साहित्यिक गोष्ठी. पिछले एक साल से पटना में और उससे पहले दिल्ली में आयोजित होने वाले ऐसे बहुत से सभा-गोष्ठियों में जाता रहा हूं. सुनने के लिए. लेकिन ज्यादातर से लौटने के बाद एक तरह की झुंझलाहट साथ हो लेती है. थोड़ा-बहुत गुस्सा भी आता है. लेकिन ऐसा शुरू-शुरू में ज्यादा होता था. अभी भी कभी-कभी ऐसा होता है लेकिन कमी आई है. अब समझने लगा हूं कि यह जो बौद्धिक वर्ग है उसकी जरुरत भर है इस तरह ही सभा-गोष्ठियां. ये सालों से होती आईं हैं और सालों तक आयोजित होती रहेंगी. वक्ता और श्रोता बदलते रहेंगे. मुद्दे और बातें एक जैसी ही रहेंगी. सो अब इन सम्मेलनों में मनोरजंन के मन से शिरकत करता हूं.

आज भी जब एक ऐसे मनोरंजक सम्मेलन से बाहर निकला और दिया गया नाश्ता खत्म किया तो मन हुआ, बस...इसी पे कुछ लिखूं! लेकिन जो अंदर हुआ. वो तो रोज की बात है. किसी को गरिया देना. उसकी मां-बह्न को एक साथ खड़ा कर देना. ये तो कोई नई घटना नहीं. फिर क्या हुआ जो अंदर एक साहित्यकार ने दूसरे के साथ लगभग ऐसा ही किया. फिर ध्यान आया, वैसे भी इस सबजेक्ट पे लिखने का नैतिक आधार कम से कम मुझे तो नहीं ही है. मैंने किसी को ऐसा-वैसा फोन पे बोला या मेल में लिख मारा. हां सार्वजनिक तौर से नहीं कहा. लेकिन ऐसा कहना गलत है न. चाहे वो सार्वजनिक रूप से कहा जाए या चुपचापा से. सो मेरी समझदारी ने मुझे रोका. कहा-रुक जा. काहे उछल रहा है. तुम्हे उछलने का कोई हक नहीं. कम से कम इस “साहित्यिक-सा्र्वजनिक चरित्रहनन” वाली घटना-दुरघटना पे. सो मैं इस मुद्दे पे यहीं रूक गया!

रूम पहूंचना. अपने नहीं, एक साथी के कमरे पे. फेसबूक खोलते हुए एकाएक से दिल्ली का ख्याल आया. वो दिल्ली जो पिछले साल छुट गई और मैं पटना आ गया. दिल्ली की याद आई तो मन दुखी हो गया. दिल्ली के साथ-साथ और भी बहुत सी यादें आ गईं. एक बारगी से. उछलते-कुदते. मैंने इन यादों को समेटते हुए. फेसबूक पे दिल्ली को समर्पित एक स्टेटस डाल दिया. दो चार कमेंट भी आ गए. जबसे दिल्ली से आया हूं यह शहर बहुत याद आती है- सड़के, ऑटो वाले. मुनिरका का मेरा कमरा. राठी(मकान मालिक का उपनाम. पूरा नाम याद नहीं) वाला कमरा ज्यादा करीब लगता है. उसकी याद भी बह्त आती है. खाता-बही पे महीने भर राशन देने वाला किराना स्टोर. चाय की दूकान. केवल सत्तू के सहारे काटे हुए दिन. फिर बाद की कुछ दिनों में खाए अनुपम रेस्ट्रोरेंट की चिकन (हालाकिं चिकन तो मालवीय नगर में जो खाने को मिला, आंटी(एक दोस्त की मम्मी) के हांथ का उसके टक्कर का तो आजतक दूसरा नहीं मिला.) का स्वाद. संदीप-मनोज(दो दोस्त) की जोड़ी. उनका झगड़ना फिर एक दूसरे को मनाना. मेरा रिश्ता (जो दिल्ली छोड़ते वक्त ही रोते-रोते, दिल्ली की सड़कों पे गिर गया. हालाकिं इस रिश्ते के मरने को लेकर कोई एक तारीख अभी तय नहीं हुई है. अलग-अलग राय है.) 

अगर इतना सब एक साथ याद आ जाए तो सोंचिए क्या लिखने का मन होगा? अरे भई...कविता और क्या. शब्द मचले, उछले-कुदे लेकिन लैपटॉप की स्क्रिन पे कविता रूप में ढ़ल नहीं पाए. अफसोस! बेहद अफसोस! एक कविता होते-होते रह गई. कवि होने का एक और सुनहरा मौका निकल गया, हाथ से.

इस तरह से दो दिनों की यह विचार यात्रा, पटना के नाला रोड से निकल के, विधानसभा परिसर में घुमते-फिरते आखिर खत्म हुई, दिल्ली पे.