सोमवार, मई 26, 2014

कहानियां जिंदा हैं.


हम कहानियां हैं. जितने लोग उतनी कहानियां. उतने चित्र लेकिन तुम्हे दिखे तब न. तुम तो एक ही कहानी को पूरा कहने में लगे हो. चलो, कह लो अपनी चमक-दमक वाली कहानी. और जब फुर्सत मिले तभी देख लेना हमारी तरफ. हम और हमारी कहानियां तब भी तुम्हारे देखे जाने और तुम्हारे द्वारा कहे जाने का इंतज़ार करेंगी. हम कई दशकों से इंतज़ार कर रहे हैं. कहे जाने का. बताए जाने का. दिखाए जाने का.

अगर तुम ईमानदार कोशिश करो. दिन-रात भागते रहो. सुबह-शाम दिखाते रहो तब भी हमारी कहानियां खत्म नहीं होंगी. क्योंकि सालों से इनसान कहानियों को जी रहा है. मुंशी प्रेमचंद के समय में भी और आज के समय में भी. असल में हम जिंदगी जीते-जीते कहानियां जी रहे हैं. हम कहानियों की रोटी खाते हैं. कहानियों के बिछौने पर सोते हैं और यही खरीदते-पकाते भी हैं.

लेकिन तुम अपनी आसानी और सहजता का ख्याल करते हुए कुछ कहानियों को कहे जाने और लिखे जाने के लिए चुन लेते हो. तुम वही कहानियां चुनते हो. खोजते हो जिन्हें पढ़े जाने, सुने जाने या देखे जाने की उम्मीद है. तुम हर कहानी क्यों लिखने लगे? क्यों दिखाने लगे? सही बात भी है. व्यर्थ की उर्जा क्यों लगाओ तुम. तुम्हारे लिए तो वही कहानी, कहानी है जिन्हें देखा या सुना जाएगा. और इसी आधार पर तुम हमारी कई कहानियों में से कुछेक का चयन कर लेते हो. और इस चयन पर खुश हो लेते हो कि तुमने कहानी लिखने और कहने की जिम्मेदारी उठाई है. कभी पूछना अपने आप से. रात के समय में. जब सब सो रहे हों और हर तरफ अंधेरे के साथ शांति हो. यह जिम्मेदारी तुम्हे किसी ने दी या तुमने अपने भले के लिए खुद ब खुद ओढ़ ली.

खैर, रहने दो. कहां कह पाओगे तुम या मैं. सारी की सारी कहानियां. शायद यही नियती है कि कुछ कहानियां केवल जीती हैं. पैदा होती हैं. बढ़ती हैं. कमाती हैं और कमाते-कमाते खत्म हो जाती हैं. इन कहानियों को इसी पर गर्व है कि वो जिंदा हैं. जिंदा कहानियां हैं. वो हर तरफ दिखती हैं. हर जगह दिखती हैं. चलिए, आज से हम और आप मिलकर कहानी देखेंगे. सुनेंगे लेकिन उन्हें लिखेंगे नहीं. उन्हें जिंदा रहने देंगे. लिखते ही कहानियां मुर्दा होकर दफ्न हो जाती हैं.