पिछले कुछ समय से दिल्ली को दुलहन की तरह सजाया जा रहा है. अगामी गेम रूपी बारात के लिए साज-सज्जा का काम कछुआ चाल से ही सही लेकिन चल तो रहा ही है. कितने सारे पैसे लग रहे हैं इन तैयारियों में? इसका कोई ठीक-ठीक हिसाब नहीं है. वैसे भी काम के बीच में पैसे का हिसाब कौन रखे, हिसाब-किताब तो आयोजन के बाद की चीज है. तब की तब देखी जाएगी. अभी तो, पूरा सरकारी अमला काम करने में लगा है. सरकारों ने भी कोई कसर नहीं छोड़ी है.
गरीब को गरीब ही रहने दिया. इन बेचारों ने भी गेम तक चुप ही रहना ठीक समझा. बेघर को दिल्ली से ही बाहर कर दिया. कुत्ते तक को दिल्ली से बाहर भेजने की योजना बन गई. पैसे को पैसा नहीं समझा जा रहा, पानी की तरह बहाया जा रहा है. दिल्ली की आम कही जाने वाली जनता ने भी इन तैयारियों में आने वाले खर्च के बोझ को चुप-चाप उठा रही है.
इस बीच, अफसरान लगातार अपनी बड़ी-बड़ी ए.सी. गाडियों से इन तैयारियों का जायजा लेते रहे और सारी तैयारी वक्त से पहले पूरा कर लेने का भरोसा दिलाते रहे.
इस भरोसे को सुनते और पचाते हुए देश का मीडिया भी इस शादी में शामिल होन के लिए बेचैन सा होता दिखा. कुछ अखबारों ने बारातियों को सही होटल और सही बस रूट की जानकारी देने के लिए बड़े-बड़े किताब भी छापनी शुरु कर दी. टीवी वालों ने अपने-अपने चैनल पर शहनाई की सुरीली तान छेड़ दी और शेरा का एनिमेशन नचाना शुरु कर दिया.
हम यानि आम दिल्ली वाले भी सरी परेशानियों को पीछे धकेलते हुए बारात देखने के लिए तैयार होने लगे. कुछ लोगों ने तो अपने खर्च में कटौती कर के टिकट भी ले लिए.
आने वाले मेहमानों से आटो-टैक्सी ड्राइवरों को कैसे बतियाना चाहिए, कितना किराया लेना चाहिए इसके लिए ट्रेंनिग भी शुरु हो गई. ये अलग बात है कि, आज तक दिल्ली वालों से आटो-टैक्सी वालों को बतियाने का ढ़ंग नहीं सिखाया. अभी कुछ दिन पहले तक सब कुछ ठीक ठाक चल रहा था. सड़कें नई न होते हुए भी, नईं लगने लगी थीं.
लेकिन इस मौनसून की घंटे भर की बारिश ने सब किया धरा बेकार कर दिया. अब तक जितनी मेहनत हुई उस सब पर इस कलमुँही ने पानी बहा दिया. बुरा हो इस बारिश का जिसने हमारे मेहनती अफसर और ईमानदार नेताओं को मुहं छिपाने पर मजबूर कर दिया. ओले पड़े इस बारिश के सर, जिसने दुलहन की तरह तैयार हो रही हमारी दिल्ली का सारा मेकाअप कुछ ही घंटो में उतार दिया और नई नवेली दुलहन को विधवा जैसा बना दिया.
अब जब ऐसा हो गया तो सब के सब सरकार, आफिसर और करमाड़ी साहब के पीछे पड़ गए. ये बेचारे भी क्या करें? एक तो चारो तरफ इतना काम पसरा है. समय करीब आने से जल्दी से जल्दी काम खत्म करने का दवाव है सो अलग. हो सकता है कि इसी जल्दीबाजी की वजह से ये लोग भूल गए होंगे कि जून के महीनें बारिश भी आनी है. बेशक ऐसा ही हुआ होगा. अगर इन धुरंधरों को इस बात का तनिक भी आभास होता कि ऐसा कुछ होने वाला है तो वो पूरी दिल्ली के ऊपर एक “बारीश रक्षा कवक्ष” जैसा कुछ बनावा देते. अगर देश में नहीं बन पाता तो विदेश से मंगवा लेते. फिर उस कवक्ष को विदेश से आए खास तरह के बांस की मदद से पूरी दिल्ली के ऊपर टांग दिया जाता. ठीक वैसे ही जैसे गांव-गवई में शादी के मौके पर तिरपाल या सामियाना ताना जाता है.
फिर इसी सामियाना रूपी कवक्ष के अंदर ही सारी तैयारियां आराम-आराम से धीरे-धीरे सितंबर या फिर अकतुबर तक चलती रहतीं. फिर गेम के दौरान भी यह कवक्ष वैसे के वैसे ही लगा रहता ताकि गेम के दौरान भी बारिश की एक सिंगल बूंद भी दिल्ली की जमीन पर नहीं गिरती.
खैर, जो हुआ सो हुआ. जो कुछ धुल गया, टुट गया उसे दुबारा खड़ा कर लिया जाएगा. हम मेहनती लोग हैं. जो ठान लेते हैं उसे किसी भी किमत पर पूरा करते हैं. सो इस गेम को भी पूरा होना ही पड़ेगा. क्या होगा कुछ पैसे और खर्च करने होंगे. थोड़ी सी ज्यादा मेहनत करनी होगी. जब सरकारी खजाने का मुहं खुला हुआ है तो फिकर काहे का.
वैसे ये कवक्ष वाला आईडिया वाकई दमदार है. इस बारे में आयोजन समीति को विचार करना चाहिए. हो सके तो आगे कि धुलाई और जग हंसाई से बचने के लिए हरकत में आते हुए इसका इंतजाम करवा कर जल्दी से जल्दी दिल्ली को कवर कर देना चाहिए.