गुरुवार, जून 14, 2012

वो अपना सम्मान करवा लेते हैं...

(कुछ समय पहले जब मैं प्रभात खबर के प्रधान संपादक और देश के जानेमाने पत्रकार हरिवंश जी से मिला था तब मैंने सोचा था कि इस विषय पे कुछ नहीं लिखूंगा. यह विचार इस वजह से था कि अमूमन यह मान लिया जाता है-“देखो ससुरा चाटुकारिता कर रहा है. नौकरी के लिए.”  इस खतरे से बचने के लिए ही आजतक मैंने इस सब्जेक्ट पे कुछ नहीं लिखा. लेकिन अपने उस साथी का धन्यवाद जिन्होंने यह कह कर लिखने को मजबूर कर दिया कि मैं हरिवंश जी के प्रति अंध-श्रधा जैसे रोग से पीडित हूं.
मुझे अपने पे विश्वास है. भरोसा है. मैं जानता हूं खुद को. मैं इस रोग से पीडित नहीं हो सकता कभी भी. किसी के लिए. लेकिन हरिवंश जी के लिए मेरे मन में बहुत सारा सम्मान और ढ़ेर सारी श्रधा है. और मैं उनके प्रति यह श्रधा हमेशा अपने भीतर जगाए रखना चाहता हूं! दूसरी बात, जो वायदा मैंने अपने-आप से तभी कर लिया था जब हरिवंश जी से मिलने का दौर शुरू हुआ था. उसे यहां भी डाल दे रहा हूं ताकि कुछ भाई लोग यह न समझे कि मैं प्रभात खबर में नौकरी चाहता हूं. या प्रभात खबर से कुछ और चाहता हूं. वायदा है-चाहे कुछ भी हो जाए. कितना भी बुरा हो जाए, मेरे साथ. मैं प्रभात खबर में के साथ तब तक बतौर नौकर नहीं जुड़ना चाहूंगा जब तक प्रधान संपादक हरिवंश जी रहेंगे. इसकी वजह साफ है. उनके साथ नौकरी करूंगा तो उस प्यार के कम हो जाने का खतरा रहेगा जो मुझे उनसे मिल रहा है.)
सुबह-सुबह हरिवंश जी अपने गांव वाले घर के आंगन में बैठे हुए.
हरिवंश जी को बतौर पत्रकार और संपादक, पिछ्ले दो तीन-चार साल से जानता हूं. उन दिनों पढ़ाई खत्म हो चुकी थी. नौकरी के लिए भागदौड़ मची रहती थी. एक नौकरी छोड़ चुका था. दूसरी नौकरी के तौर पे भड़ास4मीडिया के दफ्तर में जाने लगा था. थोड़े समय के इस नौकरी ने मुझे हरिवंश जी के लेखों से मिलवाया. उनदिनों भडास के पास उनके लेख पीडीएफ फर्मेट में आते थे. साईट पे लगाने के लिए. मुझे उस लेख को वर्ड पे टाईप करने के लिए दिया जाता था. पहली नज़र में तो मैं डर ही गया. लगा था -इतना सारा. टाईप करना होगा.

लेकिन जैसे ही लेख को पढ़ने बैठा. बहता चला गया. छोटी-छोटी लाईनें. बिल्कुल नदी की तरह बहती भाषा में दमदार और विचारत्तोजक बातें. टाईप कितना और कैसा होता रहा इसका तो अंदाजा नहीं लेकिन हर सोमवार को उस लंबे लेख का इंतज़ार रहने लगा…एक दो लेख तो मैं अपने कमरे पे भी ले गया. दोस्तों को दिखाया. सबसे तारीफ की. सब का तो पता नहीं लेकिन इस नाम “हरिवंश” के लिए श्रधा के बीज वहीं से  पड़ गए, मन की ज़मीन में.

कुछ दिनों बाद दूसरी नौकरी भी छुट गई. और हर सोमवार को मिलने वाला लंबा लेख भी छुट गया. (उनदिनों जेब में इतने पैसे नहीं होते थे कि साईबर कैफे जाकर स्टोरी या लेख पढ़ी जाए. साईबर का रुख तो तभी किया जाता था जब में पांच-दस ईमेल आईडी इकट्ठे आ जाएं ताकि दस रुपए में ज्यादा से ज्यादा जगहों पर नौकरी के लिए आवेदन पहूंचाया जा सके.)

लेख पढ़ने का सिलसिला खत्म हो गया. लेकिन नाम जहन में याद रहा-हरिवंश. गाहेबगाहे इस नाम को सुनता रहा. कभी पेड न्यूज के मामले में सबसे आगे पढ़ के काम परतो कभी किसी सेमिनार-सभा में सबसे अलहदा बोलने पर. फिर एक लंबा समय गुजरा. इस दौरान मैंने प्रभात खबर में भी नौकरी के लिए कोशिश की. दिल्ली आफिस में गया. और पटा-रांची आफिस में फोन घुमाया. रेज्यूमे भेजा.
नौकरी नहीं होने…किस्त पे लिया लैपटॉप चोरी चले जाने और ज़िन्दगी की दुसरी किचकिचबाजियों कि वजहों से  “हरिवंश जी” का नाम दिलोदिमाग से धुंधलाता गया….

इसी बीच, तहलका ने मुझे नौकरी पे रख लिया और पटना भेज दिया. एक साल का मेरा पटना प्रवास भी गजब का रहा. इन एक सालों में मुझे अपने लिए एक कमरा नहीं मिला लेकिन दर्जनभर अच्छे लोग. बड़े भाई की तरह हिम्मत और हौसला बढ़ाने वाले लोग जरुर मिल गए. सबसे बहुत प्यार दिया. दुलार किया और हर समय कुछ अच्छा करने के लिए प्रेरित किया.

लेकिन बिहार और झारखंड में समान पकड़ रखने वाले. बहुत अच्छे लिखाड़. लोकसंस्कृति से जुड़ाव महसुस करने वाले और भोजपुरी के रसिया, सुनवइया और अच्छे गबइया निराला जी उस सपंर्क-सुत्र के तौर पर मुझे पटना में मिले जिहोंने मुझे हरिवंश जी से मिलवाया. निराला जी के बारे में यह बतलाना भी जरुरी है कि वो पटना से तहलका के साथ जुड़े हैं और बिहार-झारखंड में ही रमे रहना चाहते हैं. उनकी लेखनी में मुझे हरिवंश जी का छाप दिखता है. गवईं शब्द. भाषा में प्रवाह और छोटी-छोटी बातों का बेजोड़ विशलेषण. हो भी क्यों न? निराला जी को सौभाग्य मिला है कि वो लंबे समय तक हरिवंश जी के साथ रहे हैं और आज भी हरिवंश जी के सबसे प्रिय में से हैं.

हरिवंश जी से उनके पैत्रिक गांव में मुलाकात.
महीना और तारीख याद नहीं. हां इतना याद है कि आडवाणी की यात्रा शुरू हो रही थी. सिताबदियरा से. सिताबदियरा, जेपी का भी पैत्रिक गांव है. और इसी वजह से आडवाणी अपनी यात्रा को सिताबदियरा से शुरू कर रहे थे. मैं और निराला जी उस यात्रा को कवर करने गए थे. जाते हुए रास्ते में निराला जी को फोन पर हरिवंश जी ने बताया कि वो अपने गांव आ रहे हैं. निराला जी ने भी उन्हें बताया कि वो भी उनके गांव ही पहूंच रहे हैं. आडवाणी की यात्रा को कवर करने के लिए. तय हुआ कि हम मिलेंगे. मुझे यह सुन के इतनी खुशी हुई कि पुछिए मत. मैं उस व्यकति से मिलने वाला था जिसे अबतक पढ़ता आ रहा था या उसके बारे में दुसरों से सुनता आ रहा था. खुशी तो होनी ही थी.

दोपहर बाद हम सिताबदियरा पहूंचे. हरिवंश जी, सिताबदियरा के बिहार वाले हिस्से में कुच लोगों से घीरे हुए थे. नाटे कद के. नीली जिंस और फूल शर्ट पहने हुए. आखों पे गोल फ्रेम वाला चश्मा….
मुस्कुराते और जोड़-जोड़ से हंसते हुए बतिया रहे थे. उनके आसपास के लोगों की सहजता को देखकर लग नहीं रहा था कि वो देश के एक बड़े पत्रकार के सामने खड़े हैं. सब एकदम सहज. करीब-करीब बीच पच्चीस लोगों से घीरे हुए, हरिवंश जी. एकदम मस्त. कोई लाओ-लश्कर नहीं. कोई तामझाम नहीं. कोई पीए-वीए नहीं.(कुछ संपादक तो आला दर्जे के अधिकारियों से भी ज्यादा तामझाम लेकर घुमते हैं)
निराला जी से अपनी मुलाकात का अदाज भी निराला ही था. सामने से हमे देखने के बाद. वहीं खड़े-खड़े बोल पड़े, “अरे निराला….आओ,आओ. कहां थे तुम. मैंने तुम्हे जितनी दफा फोन किया अगर उतनी दफा भगवान को याद कर लेता तो वो भी मिल जाते”

फिर उन्होंने वहां खड़े लोगों से निराला जी का परिचय करवाया, “ये मेरे युवा मित्र हैं.” मौका पाते ही निराला जी ने मेरा परिचय उनसे दिया. शायद वो मेरी बेकरारी समझ रहे थे. इतनी गर्मजोशी से हरिवंश जी मुझसे मिले कि मेरे शब्द मुहं में ही जम गए. और पूरा शरीर ठंडा पड़ने लगा. आज भी उनके द्वारा कंधे पे रखा गया हाथ और उनकी बातें याद है, “वाह…मुझे एक और युवा साथि मिल गया. बहुत सुन्दर. (हो सकता है कि मैं अतिशयोक्ति में बह रहा हूं. लेकिन इससे पहले किसी संपादक द्वारा इतना सम्मान नहीं मिला था. और जब गर्म ताबे पे पानी की एक बुंद पड़ती है तो तब्बा सब भुलभाल के धुंआ-धुंआ तो हो ही जाता है)

वहां से निकलते हुए और अपनी गाड़ी तक आते हुए उन्होंने निराला जी को इस बात के लिए मनाया कि हम आज रात उनके घर पे ही रुकेंगे. उनके शब्दों को देखने की जरुरत है, “देखो…आज विकास से मिला हूं. रात में रुकेंगे, साथ में. कुछ बातें करूंगा अपने नए साथी से. हां तुम्हे वहां बिजली-विजली की थोड़ी दिक्कत हो सकती है . सह लोगे न एक रात?”

वो निराला जी से बतिया रहे थे और बगल में खड़ा उन्हें देख रहा था. और यह सोंच रहा था कि पता नहीं क्यों निराला जी छपरा जा कर रुकने की जिद्द कर रहे हैं. क्या हुआ जो एक रात उनका फोन चार्ज नहीं होगा और लैपटॉप पे नेट नहीं चलेगा. आखिरकार, निराला जी मान गए.

रात में हमने साथ में घी में डुबोया हुआ लिट्टी और बैगन का चोखा खाया. हरिवंश जी के गांव वाले घर के आंगन में. बहुत सारी बातें हुईं. फिर रात में सोए और सुबह उठ के दुआ-सलाम करते हुए निकल लिए.

ये तो रही पहली मुलाकात. निशब्द करती मुलाकात. देखते-सुनते बीतने वाली मुलाकात. लेकिन असल कहानी तो इसके बाद शुरू होती है.

इस मुलाकात के बाद जरुरी नहीं था कि हरिवंश जी मुझे फोन करते और रांची में अपने किताब के लोकार्पण पर आमंत्रित करते वो भी यह कहते हुए, “विकास…कैसे हो? फलां तारीख को रांची में मेरी दो किताबों का लोकर्पण है. तुम आओगे तो मुझे बहुत अच्छा लगेगा. व्यक्तिगततौर पे मुझे बहुत खुशी होगी तुमसे मिल के.”
अब कोई बताए कि इस संवाद के बाद मेरे जैसे व्यक्ति के पास कुछ कहने को बचता है. नहीं न? मैंने सिर्फ और सिर्फ इतना कहा कि सर…मैं आना चाहता हूं. इसके अलावा मैं एक भी शब्द नहीं बोल सका.
घर के दरवाजे पे खड़े-खड़े निराला जी से बतियाते हरिवंश जी
 मैं तय तारीख को रांची पहूंचा. जिस जगह पे किताब का लोकार्पण होना था वहां पहूंचने पर हरिवंश जी को मैंने देखा कि वो गेट के बाहर खड़े हैं और हर आने वाले का स्वागत कर रहे हैं. ज्यादातर लोगों के साथ हॉल में जा रहे हैं और उन्हें उनकी सीट पे बिठा के फिर वापस आ जा रहे हैं. (हरिवंश जी एक अखबार के प्रधान संपादक हैं. उनके अंदर कई स्टेट एडेटर और बाकि लोग हैं. प्रभात खबर के ज्यादातर लोग वहां मजूद भी थे. यह का कोई भी सहर्ष कर सकता था. ) हरिवंश जी के बार में एक बात मैंने सुनी थी. वो याद आ गई. कहते हैं कि अगर स्टेट का मुखिया हरिवंश जी से मिलने उनके दफतर आए तो वो उसे अपनी कुर्सी से उठकर विदा कर देते हैं लेकिनगर कोई सामान्य आदमी आए तो वो उसे दफतर के बाहर आकर छोड़ते हैं.

मेरे और निराला जी पर नज़र पड़ने के बाद वो ऐसे चहके कि एक पल को मुझे लगा कि शायद सामने वाले(हरिवंश जी) को मैं “विकास कुमार” नहीं अमेरिका का प्रैसिडेंट जान मालुम हुआ हूं. तेज कदमों से आए…मुझे लगे लगाया. और वहां खड़े करीब-करीब दर्जन भर पत्रकार और दूसरे सम्मानित लोगों से परिचय करवाते हुए कहा, “ये विकास हैं. पटना से आए हैं. तहलका से जुड़े हैं. बहुत अच्छा लिखते हैं और फोटो भी कमाल की लेते हैं.”  (मुझे अपने औकाद की तब भी बहुत अच्छे से जानकारी थी और आज भी है कि मैं ढ़ेले भर भी सही नहीं लिख पाता और तस्वीरें तो कैमरा खिंच देता है. बतौर फोटोग्राफर मैं कुछ भी नहीं जानता और करता.) लेकिन प्रेम से मिल रहे प्रशंसा के शब्द अच्छे लगे थे. बहुत अच्छे.

दोपहर के वक्त किताब का लोकार्पण समाप्त हुआ. सब को विदा कर के वो आखिर में निकले. मैं निराला जी के साथ वापिस उनके राची स्थित घर पे लौट आया. रास्ते में तय हुआ कि थोड़ी देर आराम कर के राची के कुछ लोगों से मिलेंगे और फिर मैं रात की गाड़ी से पटना निकल जाउंगा.
कमरे पे पहूंचते ही. निराला जी के पास हरिवंश जी का फोन आया. फोन हरिवंश जी का था. उन्होंने शाम में हमे अपने घर पे आमंत्रित किया. कमरे में बिठा के मिठाई खिलाई. लाख जिद्द करने के बाद भी वो चाय बनाने के लिए खुद ही किचेन में चले गए. और इतने के बाद कहा, “विकास…तुम आए. मुझे बड़ा अच्छा लग.!”

अब कोई बताए,मुझे किस इस इनसान के लिए मेरे मन में सम्मान और श्रधा के वटरुक्ष क्यों न खड़े हों?
कौन इतना प्यार, दुलार और इज़्ज़त देता है किसी आज के लौंडे को? और सबसे बड़ी बात…ऐसा नहीं है कि मैं अकेला हूं जिसे हरिवंश जी ने इतना सम्मान और इतनी इज़्ज़त दी. इतना प्यार और दुलार दिया. वो हर मिलने वाले पे ऐसे ही खुद को न्योछावर कर देते हैं. हर किसी को इतना ही प्यार करते हैं. आखिर कोई बताए कि हिन्दी में कौन ऐसा सपांदक है जिसके पास एक चाय दुकान और पान दुकान वाला भी सीधे फोन मिला के बतिया लेता है?

 हरिवंश जी एक बेहतर संपादक हैं क्योंकि जब उन्होंने प्रभात खबर ज्वाईन किया था तो उसकी केवल बाईस सौ कॉंपिया छपती थी. आज प्रभात खबर बिहार-झारखंड और पश्चिम बंगाल से छपता है. वो एक अच्छे पत्रकार हैं. सम्झदार हैं. संवेदनशील पत्रकार हैं. यह बात सभी जानते हैं. इस सब के अलावा वो एक अच्छे इनसान हैं. सवेदनशील इनसान हैं तो उनके प्रति सम्मान, आदर और श्रधा का भाव क्यों न पैदा हो?