(इस विषय पे लेख दो महीने बाद क्यों?
जवाब:-आज एक बैठकी के दौरान “हरिवंश जी” के इसी लेख की बात निकल चली. सामने से कहा गया-आखिर उन्होंने ने ही क्यों लिखा? इस सवाल के बाद करीब-करीब दो घंटे तक बात होती रही. वहीं से लौट के मैंने अपने मन की बात लिखने की कोशिश की.)
मार्च महीने के किसी तारीख को प्रेस काउंसिल के चेयरमैन मार्कंडेय काटजू पटना आए थे. उन्होंने एक सभा को संबोधित करते हुए कहा था-बिहार में मीडिया आज़ाद नहीं है, ऐसा उन्होंने सुना है. काटजू के इस बयान से बहुतेरों की सहमति है. मेरी भी. वाकई बिहारी मीडिया में कुछ तो गड़बड़ है. इस गड़बड़ी के कई कारक हैं. इनके बारे में चर्चा फिर कभी.
प्रेस काउंसिल चेयरमैन के इस बयान को अगले दिन सभी अखबारों ने दो-चार कॉलम की खबर में समेट दिया. लगा था कि यह मामला भी दूसरे मामलों की तरह खो जाएगा. लेकिन प्रभात खबर के प्रधान संपादक “हरिवंश जी” ने इस बयान को आधार बना के अपने अखबार में दो पेज का एक लेख लिख दिया. लेख, प्रभात खबर के 27 मार्च के अंक में प्रकाशित हुआ. एक बार फिर से काटजू के बयान और बिहार में मीडिया की हालत पे चर्चा शुरू हुई.
काटजू के बयान के बाद बिहार के सभी अखबारों(प्रभात खबर को छोड़ के)के बड़े-बड़े संपादक चुप रहे. हरिवंश जी को छोड़कर किसी संपादक ने अपना पक्ष सार्वजनिक तौर पे नहीं रखा. किसी संपादक ने इस मसले को (प्रेस काउंसिल चेयरमैन के बयान) बहस का मुद्दा नहीं बनाया. सब ने इग्नोर किया. लेकिन हरिवंश जी ने, पूरी ईमानदारी से अपना पक्ष, अपने मंच(एक अखबार के संपादक के लिए अपनी बात कहने का सही मंच उसका अखबार ही हो सकता है.) से पाठकों के सामने रखा. चाहते तो वो भी चुप रहते. लेकिन उनहोंने चुप्पी ओढ़ने के बदले लिखा और खुल के लिखा. अपनी बात लेख(वो किसी मंच से भाषण दे कर भी अपनी बात कह सकते थे) के रूप में रखा. क्योंकि छपे हुए शब्द हमेशा जिन्दा रहते हैं. दो पन्ने के आलेख में हरिवंश जी ने अपना पक्ष रखा. अपने अखबार का पक्ष रखा. पक्ष में तर्क दिए.
कायदे से होना यह चाहिए था कि खुल के अपनी बात सामने रखने के लिए हरिवंश जी की तारीफ होनी चाहिए थी और एक बहस आरंभ होनी चाहिए थी. लेख में लिखी गईं बातों और दिए गए तर्कों से असमति हो सकती है और होनी भी चाहिए. लेकिन असहमति रखने वालों को अपनी बात और अपने तर्कों को संपादक तक पहूंचाना चाहिए था. किसी भी माध्यम से. पत्र, ईमेल या फोन के माध्यम से(हरिवंश जी हर माध्यम से जुड़े हैं और सहज उपलब्ध होते हैं. उनके पास जो भी जाता है उसे देखते-पढ़ते है. कायदे का होने पर अखबार में जगह भी देते हैं.)
लेकिन न तो हरिवंश जी की तारीफ हुई और न हीं किसी ने उनके लेख के जवाब में कुछ तर्कसंगत लिखा. बल्कि इस साहसी लेख के बाद हुआ वो जो नहीं होना चाहिए था.
भाई लोगों ने इस गंभीर मसले को बेकार की बतकुच्चन तक समेट दिया. चाय की दुकान पे चाय की चुसकी लेते हुए. पान कल्ले में दबाते हुए या सिगरेट सुलगाते हुए बातें होती रहीं. इन बातों का स्तर काफी घटीया रहा. कुछ लोग संपादक को चौक-चौराहों पर काफि बुरा-भला भी कह जाते हैं. लेकिन वो यह भुल जाते हैं कि ऐसा कहने और बोलने का स्पेस भी(लेख लिखकर) हरिवंश जी ने ही दिया है.
चौक-चौराहों पे बतकही में उलझे रहने वाले सुधी जनों को चाहिए था कि वो उस लेख को पूरा पढ़ते(मेरा विश्वास है कि पटना के ज्यादातर सुधी पत्रकारों ने या बुद्धिजिवियों ने लेख नहीं पढ़ा होगा) और फिर अपनी बात, कायदे से संपादक तक पहूंचाते. एक मर्यादिय भाषा में.
लेकिन आज मार्च को बीते हुए दो महीने हो चुका है. किसी ने. किसी भी मंच से कुछ नहीं लिखा हरिवंश जी की बातों से असहमति जताते हुए. और एक सार्थक बहस होते-होते रह गई. इसके लिए दोषी कौन? प्रभात खबर के संपादक, जिन्होंने पाठकों के सामने अपना पक्ष रखा और बहस की जमीन तैयार की या फिर राज्य की बौद्धिक जमात?
अपनी असहमति को जाहिर करने का. अपनी बात कहने की हिम्मत होनी चाहिए. इससे बचते हुए. पीठ पीछे कुछ से कुछ कहने और अंदाजा लगाने का कोई फायदा नहीं है. इससे कुछ हासिल नहीं होता. हमे बहस के मैदान में आना चाहिए. किसी भी मुद्दे पे. हरिवंश जी के लिखे पर जिन्हें भी आपत्ति है वो खुल के आएं. बोलें. एक बहस की शुरूआत करें. बेकार में आरोप लगाते रहने का कोई फायदा नहीं. बल्कि जो भी बौद्धिक जन ऐसा कर रहे हैं वो बौने साबित हो रहे हैं. क्योंकि किसी के पीठ पीछे उसके बारे में कुछ से कुछ कहते रहना हमारे बौनेपन को ही दिखाता है. तो बौना होने से बचिए. हिम्मत दिखाइए. दो महीने बाद ही सही एक हेल्थी डीवेट को शुरू करिए. अभी भी देरी नहीं हुई है.