वैशाली जिला मुख्यालय हाजीपुर से करीब तीन किमी की दूरी पर गंगा नदी के किनारे बसा छोटा सा गांव लोदीपुर-चकवारा प्रदेश के दूसरे गांवों के लिए खेती-किसानी के मामले में एक बड़ी मिसाल है.
लोदीपुर-चकवारा गांव पिछले सौ सालों से न सिर्फ फूलगोभी बीज का उत्पादन करता आ रहा है बल्कि देश के लगभग कई हिस्सों में यहां के बीजों की मांग रही है. समूचा गांव इसी बीज उद्योग पर आश्रित है. 1990 से 2000 के बीच गांव के इस पुश्तैनी उद्योग को तब बड़ा झटका लगा था जब बड़ी-बड़ी मल्टीनेशनल कंपनियां इस व्यवसाय में उतर गई थीं. इनकी जोरदार मार्केटिंग और धुआंधार प्रचार के आगे गांव के पारंपरिक बीज उत्पादक पिछड़ने लगे थे क्योंकि बाजार का मुकाबला करना इन किसानों के वश से बाहर की बात थी. दूसरी मुसीबत यह भी थी कि इन खेतों मे रासायनिक खादों के जरुरत से ज्यादा प्रयोग ने यहां की उत्पादन क्षमता को बुरी तरह प्रभावित कर दिया था. दोहरे संकट से जूझ रही खेती-किसानी को वापस ढर्रे पर लाने का जिम्मा तब गांव के युवाओं ने अपने कंधों पर लिया और ऐतिहासिक वापसी की. इन्हीं में से एक थे संजीव कुमार जिन्होंने गांव के युवा किसानों को एक जुट करके विभिन्न स्रोतों की मदद से यहां की कृषि व्यवसाय को आगे बढ़ाया. इस बारे में बताते हुए 35 वर्षीय संजीव बताते हैं, ‘पूरे बाजार पर मल्टीनेशनल कंपनियों का कब्जा था. किसान उन्हीं बीजों को खरीद रहे थे सो बीज विक्रेता हमारी बीज रखने तक को तैयार नहीं थे. हम इन बीजों को औने-पौने भाव में बेचने को मजबूर थे. इन सबके बावजूद हमने हिम्मत नहीं हारी और फिर रास्ते खुलते चले गए.’
कायापलट की इसी कहानी की थाह लेने हम इस गांव में आए थे जहां साल 2009 के फरवरी में इनके द्वारा तैयार बीजों की उम्दा क्वालिटी और उत्पादन क्षमता से प्रभावित होकर बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का भी आना हुआ था. उन्होंने तब अपने अधिकारियों को निर्देश दिया था कि मार्च, 2011 तक यहां के किसान भवन में 50 लाख की लागत वाली ‘सीड प्रोसेसिंग युनिट’ लगवाई जाए ताकि उत्पादन को और गति दी जा सके. हालाकिं मार्च का महीना खत्म हो चुका है लेकिन अभी तक “प्रोसेसिंग युनिट” नहीं लग पाया है. इस बारे में संजीव बताते हैं, “फंड आ गया है. कहीं कोई दिक्कत नहीं है. जमीन का खाता-खेसरा नंबर लिखकर जामा करवाना है. जनवरी, फरवरी का महीना हमारे लिए कमाई के नजरिए से महत्वपूर्ण होता है सो किसान उस तरफ लगे हैं. देरी हम में है, सरकार या विभाग में नहीं. उम्मीद है कि अगले दो-एक महीनें में युनिट लग जाएगा.” इस यूनिट के लग जाने से बीज के प्रोसेसिंग का काम जो कि अभी तक यहां के किसान मैनुअली करते हैं, मशीन से होने लगेगी. इसके बाद इनकी मेहनत और लागत में कमी भी होगी.
‘इस हालात तक पहुंचने में बहुत वक्त लगा.’ उस मुश्किल दौर से निकलने की पूरी कहानी बताते हुए संजीव कहते हैं कि उस वक्त गांव के किसानों के लिए सबसे बड़ी दिक्कत थी पैसों की कमी. इसी दौरान संजीव को नबार्ड (नेशनल बैंक फॉर अग्रीकल्चर ऐंड रूरल डवलपमेंट) के बारे में जानकारी मिली. इन्होंने नबार्ड के अधिकारियों से मिलकर अपनी और अपने गांव के किसानों की परेशानी बताई. नबार्ड के अधिकारियों के निर्देश पर गांव के सभी किसानों ने मिलकर 2001 में एक किसान क्लब का निर्माण किया ताकि नबार्ड इन्हें आर्थिक मदद पहुंचा सके. (नबार्ड खुद कोई आर्थिक मदद नहीं देता है. यह संस्था जरुरतमंद किसानों और स्थानिय बैंक के बीच पूल का काम करता है.) इस बारे में संजीव बताते हैं, ‘हमारे यहां के किसानों के पास जोत लायक जमीन कम है जिसकी वजह से बैंक लोन या किसान क्रेडिट कार्ड देने से कतराती थीं लेकिन किसान क्लब बन जाने के बाद यह दिक्कत दूर हो गई.’
पैसे की परेशानी खत्म होने के बाद गांव के किसानों की दूसरी परेशानी खेतों की घटती उपज क्षमता को ठीक करने की थी. इसके लिए इन्होंने इंटरनेट, रेडियो, फोन और अन्य माध्यमों के जरिए कृषि वैज्ञानिकों से संपर्क किया और उनसे सलाह मांगी. वैज्ञानिकों की सलाह पर यहां के किसानों ने अपने खेतों मे रासायनिक खाद डालना कम किया और गोबर डालना शुरु किया. इसका परिणाम यह हुआ कि धीरे-धीरे खेतों की पुरानी उपज क्षमता लौटने लगी और साल 2005 तक किसानों ने एक एकड़ में करीब-करीब एक क्विंटल बीजों का उत्पादन शुरु कर दिया. इसी साल गांव के युवा किसानों ने मिलकर 2001 में बने किसान क्लब को ‘अन्नदाता कृषक क्लब’ का नाम दिया और सबलोग इस एक क्लब के बैनर तले आ गए. कायापलट के इस पूरे खेल में संजीव ने आगे बढ़कर उदाहरण पेश किए और दूसरों ने उसका अनुसरण किया. इसी नेतृत्व क्षमता की वजह से संजीव इस क्लब के सचिव हैं.
गांव में बने सामुदायिक भवन को ’किसान भवन’ का नाम दे दिया गया और इसी भवन में क्लब के सदस्यों की नियमित तरीके से महीने में एक बार बैठक होती है जिसमें मौजूदा मौसम में खेतों में लगने वाले कीट और बिमारियों के बारे में चर्चाएं होती है, फिर उस बीमारी से बचने क लिए नजदीकी कृषि वैज्ञानिकों से सलाह-मशविरा किया जाता है. ऐसे में नुकसान होने की गुंजाइश कम रहती है.
संजीव के मकान के बाहरी कमरे में उनसे हमारी यह बातचीत चल ही रही थी कि उस कमरे में कुर्ता और पजामे में एक युवक आता है. संजीव उस युवक से हमारा परिचय करवाते हैं, ‘ये हमारे गांव के ही एक युवा किसान हैं और इन्होंने अभी अभी अपनी मैनेजमेंट की पढ़ाई खत्म की है.’ आज जब लोग एमबीए करने के बाद शहर जाकर बड़े फर्मों में नौकरी करना और एक मोटी तनख्वाह उठाना पंसंद करते हैं, ऐसे में रुपेश का खेती की तरफ रुझान एक सुखद आश्चर्य था. रुपेश बताते हैं, ‘मैंने एमबीए किया ही इसलिए है ताकि अपने गांव और परिवार के पारंपरिक बीज व्यवसाय को आगे बढ़ा सकें. आखिरकार यह भी तो एक बिजनेस ही है. मैं अपनी इस पढ़ाई से इस वर्षों पुराने बिजनेस को फायदा पहुंचाना चाहता हूं न कि किसी मल्टीनेशनल को.’
आज गांव के युवाओं में खेती को छोड़कर नौकरी करने की होड़ लगी है. लोग अपनी जमीन जोतने से ज्यादा अच्छा समझते हैं दिल्ली, मुम्बई या कलकत्ता जैसे महानगरों में मजदूरी करना. ऐसा नहीं है कि लोदीपुर-चकवारा के इन युवा किसानों ने मुश्किल वक्त नहीं देखा है या आज चीजें बिलकुल इनके अनुरुप हो गई हैं. ये आज भी अपने बीज की उपयोगिता साबित करने करने के लिए बड़ी-बड़ी कंपनियों से भिड़ रहे हैं. रूपेश कहते हैं, ‘पहले हमारे बीज का बाजार बहुत बड़ा था. जम्मू-कश्मीर को छोड़कर समूचे भारत में हम गोभी के बीज का निर्यात करते थे. आज स्थिति वैसी नहीं है. हमारा बाजार कम हो रहा है. सो हमने अपने बीज की गुणवत्ता को बताने के लिए इंटरनेट का सहारा लिया है. सोशल नेट्वर्किंग साईट की मदद ले रहे हैं. अन्नदाता कृषक क्लब के बैनर तले अलग-अलग इलाकों में गोभी की खेती के उपर सेमिनार आयोजित करवा रहे हैं. अपने बीज के बारे में जानकारी देने के लिए राज्य और राज्य से बाहर लगने वाले कृषि मेलों में अपने स्टॉल लगा रहे हैं और इससब से एक बार फिर हमे हमारा खोया हुआ बाजार मिल रहा है.’ इस प्रतिद्वंद्विता में जीतने के लिए रूपेश जैसे व्यापारी दिमाग और संजीव जैसी नेतृत्व क्षमता बहुत जरूरी है और यही वजह है यहां की कृषि सफल साबित हो रही है. इसका एक अच्छा परिणाम यह भी है कि इस गांव के लोग सरकारी या प्राइवेट नौकरी की जगह किसानी को तवज्जो दे रहे हैं.
गांव के 40 वर्षिय द्वारीका सिंह के पास अपनी एक एकड़ से भी कम( दस कठ्ठा) जमीन है लेकिन वो अपनी इसी थोड़ी सी ज़मीन पर गोभी के बीज का उत्पादन कर के अपने और अपने परेवार का भरण-पोषण करते हैं. द्वारीका के मुताबिक अगर अन्नदाता किसान क्लब नहीं बनता तो यहां के किसानों के लिए बाज़ार में तेज़ी से आ रहे हाईब्रीड बीज से मुकाबला करना मुश्किल हो जाता लेकिन आज स्थिति बदल चुकी है.
संजीव और रुपेश के साथ हम बात करते हुए खेतों की तरफ निकलते हैं. चारो तरफ जहां तक हमारी नजर जाती है केवल गोभी के खेत ही दिखते हैं. आखिर इस खेती से इन किसानों की कितनी कमाई हो जाती है कि आय के बेहतर विकल्पं को छोड़कर ये कृषि को उपयुक्त मानते हैं? इसके जवाब में संजीव कहते हैं, ‘इस गांव में करीब 20-25 घर है. किसी के पास एक एकड़ से ज्यादा जमीन भी नहीं है और इनके पास इस खेती को छोड़कर आय का कोई दूसरा साधन भी नहीं है. हमारा पूरा का पूरा खर्च इसी से चलता है.’ वे अपनी बात जारी रखते हैं, ‘आज हम एक एकड़ में करीब 100 किलो बीज तैयार करते हैं. अगर बीज की कीमत सात सौ रुपए किलो भी रही तो एक एकड़ में सत्तर हजार रुपये तो आ ही जाते हैं जबकि गोभी के बीज की कीमत करीब-करीब एक हज़ार से बारह सौ रुपय किलो तो रहती ही है. इसमे से लागत, जो एक एकड़ में करीब 20-25 हज़ार होता है, को हटा भी दें तो इतनी कमाई तो हो जाती है जिससे खा-पीकर कुछ बचा भी लिया जा सके.’
खेतों के किनारे-किनारे घुमते हुए इतनी बात होती रही और इस सब के बीच संजीव लगतार फोन से अपने दूसरे युवा किसान साथियों को बुलाते रहे लेकिन तब दिन के करीब ग्यारह बज रहे थे और यह वक्त था गोभी को बाजार ले जाकर थोक व्यापारियों के हाथ बेचने का. सो उनके ज्यादातर किसान साथी वहां आ पाने में असमर्थ थे. हमने उन्हें फोन करने से रोक दिया क्योंकि हमे लगा कि इन किसानों के लिए एक पत्रकार से बात करने से ज्यादा जरुरी है अपने माल को सही तरीके से बेचना.
लोदीपुर चकवारा के ही एक बीस वर्षीय किसान राजीव कुमार ने नेनुआ की एक ऐसी किस्म विकसित की है जिसे तलने के लिए कड़ाही में डालते ही बासमती चावल-सी खुशबू आने लगती है. राजीव कुमार नेनुआ की इस खास प्रजाति को अपने नाम के साथ सुरक्षित करवाने में लगे हुए हैं. इसी वजह से वे इसे विकसित करने के तरीकों के बारे में ज्यादा कुछ नहीं बताना चाहते हैं. हमारे बार-बार आग्रह के बाद वे इतना बताते हैं, ‘हम अपने खाने के लिए हर साल नेनुआ के दो पौधे अपने घर के पास लगाते हैं. आज से करीब पांच साल पहले की बात है. एक सुबह मैंने देखा कि कुछ मधुमक्खियां नेनुआ के पौधे में लग रही फूल पर से उड़कर बगल के बासमती धान के खेत में आ-जा रही हैं. ये प्रक्रिया दिनभर चलती रहती थी. फिर कुछ टाईम के बाद धान तो काट लिए गए लेकिन जब-जब हवा चलती तो बासमती चावल वाली खुशबू महसूस होती थी. काफी गौर करने पर मालूम हुआ कि ये खुशबू उस नेनुआ के पौधे से आ रही है. फिर मैंने इस बारे में अपने दूसरे किसान साथियों से बात की और उस साल से उसी बीज को हर साल लगाना और उसे गोबर की मदद से उपजाना शुरु कर दिया.’ इतना बताने के बाद राजीव कहते हैं कि इससे आगे की विधि तब तक नहीं बता सकता जब तक यह तरीक (तरीका नहीं. नेनुआ की यह खास प्रजाति) मेरे नाम से पेटेंट नहीं हो जाता.
बातचीत के बाद राजीव मेरे लिए दो नेनुआ ले आते हैं और कहते हैं कि मैं इसे अपने घर पर ले जाकर बनाउं और अगर कहे अनुसार खुशबू आए तभी इस बारे में लिखूं. राजीव से मिले नेनुए से सब्जी बनाने और उसे खाने के दौरान वही खुश्बू आती रही जिसका जिक्र उनसे हुई बातों में हुआ था.
आपको यह बताते चलें कि नेनुआ की इस खास प्रजाति को खोजने और सहेजने वाले युवा किसान अभी स्नातक के छात्र हैं और खेती के साथ पढ़ाई भी कर रहे हैं.