गांधीजी के नाम का आजकल भारत में कुछ ज़्यादा धड़ल्ले से इस्तेमाल किया जा रहा है. और तो और बेचारी गांधी की बकरी की भी याद सफेदपोश नेताओं को आने लगी है.
वाह किस्मत हो तो ऐसी. रस्मी तौर पर गांधी का इस्तेमाल भारत में आम है. पर अब जब मंदी का दौर है तो एक कपड़े में लिपटे, थर्ड क्लास में पूरा भारत दर्शन करने वाले और आश्रम में बकरी का दूध का सेवन करने वाले गांधी के आम आदमी को समझने के इसी हुनर को उनकी पार्टी, कांग्रेस के नेता आत्मसात करने में लगे है। पर बहुत बेमन से.
वित्त मंत्री के चाबुक के बाद कुछ मंत्रियों को पांच सितारा होटलों से निकल किसी मध्यवर्गीय की तरह एक आम राज्य गेस्ट हाउस में रहना पड़ रहा है.
बेचारे नेताओं को पुराने कारपेट, खटर पटर करने वाले एयरकंडीश्ननर से काम चलाना पड़ रहा है. न इटेलियन मार्बल, न बिज़नेज़ क्लास की सीटों का सुख..और तो और गाएं भैसों की तरह रेल के सफ़र की सोच से ही इन जनप्रतिनिधियों के पसीने छूट रहे हैं.
चुनावी समर में ही पसीना क्या होता है इन्होंने जाना था. और माना था कि उस मेहनत के बाद उन्हें न केवल एक बंगला मिलेगा न्यारा बल्कि पसीने की गंध को वो पांच साल तक भूल जाएंगे. पर ऐसा हुआ नहीं.
वे सब जानना चाहते है कि आखिर किस खुराफाती दिमाग़ की उपज थी कि आम आदमी के नाम पर चुनाव लड़े जाएँगे और उसे भुलाया भी नहीं जाएगा.
इस में भी ज़रुर हर चीज़ की तरह अमरीकी साजिश होगी. न मंदी होती न कमर कसने की मजबूरी और न ये गाय भैंस की सी ज़िंदगी. कुछ ग़लती अपनों की भी थी.
आखिर क्या ज़रुरत थी गांधीजी को बकरी पाल कर खुश होने की, जनता को जनार्दन का दर्जा देने की. उनको तो कम से कम देश के भविष्य के बारे में सोचना चाहिए था, नेताओं की दिक्कतों को समझना चाहिए था. वो तो अपने ही थे. बापू ने क्यों महात्मा बनने की सोची..क्यों, क्यों, आखिर क्यों।
(सभार-बीबीसी हिन्दी)
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