मंगलवार, अक्टूबर 06, 2009

मुंबई या बंबई

( यह पोस्ट भी बीबीसी हिन्दी के ब्लॉग खरी-खरी से उधार लेकर यहाँ चस्पा रहा हूँ. इस लेख में एक ख़ास तेवर है जिसे आप पसंद करेंगे. इसके लेखक है बीबीसी के पत्रकार "राजेश प्रियदर्शी"। )

पहले राज ठाकरे नाराज़ हुए और उसके बाद महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री अशोक चह्वाण।
अगर आपके पास ऊँची कुर्सी हो या सिनेमा हॉल की कुर्सियाँ उखड़वाने की ताक़त हो तो आप भी करण जौहर से नाराज़ हो सकते हैं। वे माफ़ी भी माँग लेंगे.

आप बताइए ज़्यादा बड़ी गलती मुंबई को उसके पुराने नाम से बुलाना है या उसके लिए माफ़ी माँगना. वह भी एक ऐसे आदमी से, जो मानता है कि तोड़फोड़ के बिना महाराष्ट्र का 'नवनिर्माण' संभव नहीं है.

अगर आप नागरिकों के अधिकार-कर्तव्य वग़ैरह की बात करने वाले 'भावुक आदमी' हैं तो आपको मुख्यमंत्री की बात सही लगेगी, अगर आप सही टाइम पर सही काम करने वाले 'समझदार आदमी' हैं तो करण जौहर को अशोक चह्वाण से भी माफ़ी माँगकर काम पर जुट जाने की सलाह देंगे.

मुख्यमंत्री अशोक चह्वाण कह रहे हैं कि पुलिस के पास क्यों नहीं गए, मुख्यमंत्री हैं इसलिए कहना उनका काम है. पांडु हवालदार और राज ठाकरे में से किसकी शरण में जाना है, यह हर समझदार आदमी को पता है.

जब तक महाराष्ट्र के 'नवनिर्माण में जुटे सामाजिक कार्यकर्ता' शिव सेना की जड़ें कुतर रहे हैं राज्य के कांग्रेसी मुख्यमंत्री को भला क्या एतराज़ हो सकता है, उन्हें अगर एतराज़ होता तो दो दिन बाद बयान देने के बदले समय पर कार्रवाई न करते?

यह तो इन दिनों की राजनीति की बात है लेकिन समानांतर सेंसर बोर्ड का मुख्यालय 'मातुश्री' में बरसों से रहा है, दूल्हे के बैठने वाली कुर्सी पर साधु जैसे कपड़े पहनकर रुद्राक्ष के मनके फेरने वाले पूर्व कार्टूनिस्ट से कभी माफ़ी, तो कभी आशीर्वाद लेने बीसियों निर्माता-निर्देशक जाते रहे हैं.

करण जौहर ने कुछ नया नहीं किया है, न अपनी फ़िल्मों में, न असलियत में.
क़ायदे-क़ानून से परे दलालों, पूंजीपतियों, महंतो, मठाधीशों और गुंडों के दरबारों में मत्था टेकने का आदी समाज 'वेक अप सिड' से उठे विवाद को 'वेक अप कॉल' की तरह तो नहीं देख रहा है।

(सभार: बीबीसी हिन्दी)

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