बुधवार, सितंबर 14, 2011

विकास में बहते घर-परिवार.

(यह फोटो -फिचर तहलका के बिहार-झारखंड संस्करण में प्रकाशित हो चुका है.  यहां फिचर के साथ उन तस्वीरों को नही लगाया जा रहा है जो पत्रिका में छप चुकी हैं)
ऐसा विकास किस काम का जिससे कुछ के लिए तो रास्ते सरल और सुगम हो जाएं तो बदले में कई हजार लोगों के सामने जीवन का संकट खड़ा हो जाए. कोसी नदी पर बन रहे महासेतू की वजह से इलाके के 48 गांव में बसने वाली आबादी पर आज ऐसा ही एक संकट बना हुआ है. छोटे से लेख और कुछ तस्वीरों से उस परेशानी दिखाने की एक कोशिश:


 देहाती मोटर चालित नाव से करीब-करीब तीन घंटे तक कोसी की तेज और पगलाई धाराओं से लड़ने के बाद जिस पहले गांव तक पहूंचना संभव हो सका वह है-लगुनिया. नाव से उतरते ही गांव के सबसे पहले घर को देखने पे लगा कि यहां हाल में ही किसी की शादी हुई है. क्योंकि  टाट के छत वाले इस उजड़ रहे घर की मिट्टी पुती दिवार पे गहरे रंग से बड़े-बड़े शब्दों में “शुभ विवाह” लिखे दिख रहे हैं.

 पुछने पर मालुम हुआ कि इस घर के रहनियार भागवत मेहता के बड़े बेटे की शादी चार माह पहले ही हुई है. और दिवार पर यह कलाकारी गांव-घर की लड़कियों ने बनाई थी. आने वाली नई दुलहान  के स्वागत में.

 पहली नजर में ही मालुम चल जाता है कि भागवत मेहता ने जीवन जीने के सारे जरुरी सामान यहां से हटा लिए हैं  और फिलहाल जो थोड़ा-बहुत सामान यहां  पसरा है वो बहुत जरुरी का नहीं है. इसी गांव के एक बुजुर्ग रामेश्वर मेहता बताते हैं कि गांव के दूसरे लोगों की तरह ही भागवत ने  भी कोसी में हो रहे कटाव की वजह से अपने परिवार को तटबंध से बाहर बसाने का फैसला लिया है.

 लगुनिया, इलाके के दूसरे 48 गांव की तरह  ही वर्षो से कोसी तटबंध के बीच  से बसा हुआ था. लेकिन फिलहाल  तीन सौ से चार सौ घर वाले इस गांव में हर  तरफ खाली पड़े टाट-मरई के घर किसी कंकाल की तरह खड़े मालुम पड़ते हैं. पिछले कुछ माह तक आबाद और गुलजार रहने वाले इस  गांव में चारो तरफ शमशान घाट में पसरी रहने वाली चुप्पी ने अपना डेरा डाला हुआ है.   गांव में  कोई औरत नहीं दिख रही. बस एक-दो टुटे पड़े, उदास मिट्टी के चुल्हे और किसी-किसी घर के बाहर बेमन से खड़े हैन्ड पंप दिखाई पड़ते हैं.

 पलायन का यह चक्र केवल इसी गांव में नहीं चल रहा है बल्कि कोसी तटबंध के बीच बसे 48 गांव में ऐसी ही हलचल मची है. क्योंकि विकास के नाम पे निर्मली प्रखंड के सनपतहा के पास कोसी नदी के पूर्वी और पश्चिमी तटबंध के बीच 1.85 किमी लंबा सड़क पुल और इसके समानांतर 60 मीटर द्क्षिण में इतनी ही लंबाई का रेल पुल बनाया जा रहा है. बाकी बची दूरी को पाटने के लिए तटबंध के दोनों छोरों के बीच एक धनुषाकार एफलक्स व सुरक्षा बांध बनाया जा रहा है ताकि 12 -15 किलोमिटर में बहने वाली कोसी नदी को लगभग दो किलोमीटर के दायरे में बांध के बहाया जा सके. सीधा सा गणीत है कि जब 12-15 किमी के बड़े इलाके में बहने वाली नदी को  2 किलोमिटर के दायरे में समेट के बहाने की कोशिश होगी तो इस दायरे में आने वाले सारे खेत-खलिहान और गांव-जवार तो पानी में समा ही जाएंगे.

 इतनी छोटी सी बात जो कि कोसी इलाके के हर आदमी की समझ में रसबस रहा है वही बात इतने बड़े पुल के निर्माण में लगे बड़े-बड़े अभियंताओं और देश के रहनुमाओं की समझ से क्यों बाहर है, यह  समझ से बाहर है. लेकिन इनकी नासमझी की वजह से कई हज़ार लोगों की जान पर आफत के बदल मडरा रहे हैं . जिसकी चिन्ता पटना से दिल्ली तक किसी को नहीं है.
आसमान में बादलों की ऐसी चित्रकारी देखकर कोई कवि प्रेम की बेहतरीन कविता लिख सकता है. शायर, शायरी कह सकता है लेकिन कोसी के इलाके के लिए यह बादल और इनका यह काला रूप रोमांचित करने वाला नहीं है. हर एक बारिश के बाद नदी के बहाव में एकाएक तेजी आ जाती है और कटाव भी तेजी से होने लगता है. उजड़ चुके घर-दुआर पे जो थोड़े-बहुत  सामान पड़े होते हैं वो भी भीग जाते हैं. 
कोसी नदी में  पानी बढ़ने की वजह से यह  मछुआरा मछली नहीं पकड़ पा रहा है. क्योंकि इसके पास इतने बड़े जाले नहीं हैं जो ज्यादा पानी में से भी मछलियों को पकड़ सकें. बैठे-बैठे थकने के बाद अपनी नाव को ही बिस्तरा बना लिया इस इलाकाई मछुआरे ने.



जीतवन देवता की मुर्ती तो कोसी की तेज धार में बह गई लेकिन उनके पांव रह गए. तटबंध के अंदर बसे सिंहपुर गांव में हर साल आसिन (अंग्रेजी कैलेंडर से अक्टूबर) के महीने में, जीतीया वर्त के मौके पर इस मूर्ति के पास एक बड़ा मेला लगता था. (बिहार के ज्यादातर इलाकों की औरतें जीतीया का वर्त रखती हैं. इस अवसर पर माएं एक दिन का अखंड उपवास रखती है और जीतवन देवता की पूजा करती हैं. मान्यता है कि इस वर्त को करने वाली महिलाओं के बच्चों की अयू लंबी होती है.)



खाते-पीते परिवारों ने बहुत पहले ही यह इलाका छोड़ दिया और आसपास के शहरों में बस गए. यहां अभी वही रह गए हैं जिनके सामने न उपजाएं तो  खाएं क्या, का संकट है. भोला, ने भी अपने परिवार को तटबंध के बाहर कर दिया है लेकिन वो वहां केवल रात के वक्त सोने के लिए जाते हैं. माल-मवेशियों को तो उन्होंने औने-पौने दाम में बेच दिया लेकिन समझ नहीं पा रहे  कि खेत में लगी धान की फसल का क्या करें? 






कुछ महीने पहले ही हुए विवाह का निशान लिए खड़ा, सुनसान घर. इलाके के ज्यादातर गांव के  कई घर अब इसी अवस्था में खड़े हैं. क्योंकि इन घरों में रहने वालों को दुसरी जगह पर अपना ठीकाना बनाना पड़ रहा है. विकास के नाम पे नदी के साथ लगातार एक बेपरवाह छेड़छेड़ा किया जा रहा है और इस वजह से यहां के बासिंदो को विस्थापन का शिकार होना पड़ रहा है.



जहां भक्त वहीं भगवान का बेसेरा. तटबंध के बीच से निकले परिवारों ने सुपौल जिले के सरायगढ़-भपटियाही के पास राष्ट्रीय राजमार्ग (57) के किनारे-किनारे बस गए. एनचस के बीच में बने डाईवर्जन पर ही इनलोगों ने संकटमोचन कहे जाने वाले हनुमान जी को स्थापित कर दिया है. मतलब भगवान ने अपने भक्तों को उजड़ने से तो नहीं बचाया लेकिन भक्तों ने अपने भगवान जी के लिए इस संकट में भी जगह तलाश ली.

1 टिप्पणी:

दिनेशराय द्विवेदी ने कहा…

चित्रों पर आप की टीका बहुत कुछ कह रही है। हम सुन पाए।